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________________ १९४ है; ऐसे पुरुषों की सेवा उपकार या दान कुदेवरूप में और फलते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “जिसप्रकार एक समान बीज होने पर भी भूमि की विपरीतता से निष्पत्ति की विपरीतता होती है; उसीप्रकार प्रशस्त रागरूप शुभोपयोग एक समान होने पर भी पात्र की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है; क्योंकि कारण के भेद से कार्य का भेद अवश्यम्भावी है। सर्वज्ञकथित वस्तुओं में युक्त शुभोपयोग का फल पुण्य संचयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। वह कारण की विपरीतता से विपरीत ही होता है। छद्मस्थ कथित वस्तुयें कारण विपरीतता है और उनमें व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान और दान में रत रूप से युक्त शुभोपयोग का फल मोक्षशून्य केवल अधम पुण्य की प्राप्ति है। यह फल की विपरीतता है और वह फल सुदेव व सुमनुष्यत्व है। छद्मस्थ कथित वस्तुएँ कारणविपरीतता है। वे विपरीत कारण शुद्धात्मज्ञान से शून्यता के कारण परमार्थ से अजान और शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त न करने के कारण विषय-कषायरत पुरुष हैं। उनके प्रति शुभ उपयोगात्मक जीवों की सेवा, उपकार या दान करनेवाले जीवों को जो केवल अधम पुण्य की प्राप्तिरूप फल विपरीतता है; वह कुदेव, कुमनुष्यत्व है।” प्रवचनसार अनुशीलन कुमनुष्यरूप में उक्त गाथाओं का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में लिखते हैं “जो निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्ग को नहीं जानते और पुण्य को ही मुक्ति का कारण कहते हैं; उन्हें ही यहाँ छद्मस्थ शब्द से ग्रहण किया गया है, गणधरदेवादि को नहीं। इसीप्रकार शुद्धात्मा के उपदेश से रहित छद्मस्थ अज्ञानियों से जो दीक्षित हैं; उन्हें छद्मस्थविहित वस्तुएँ कहा गया है। उन पात्रों के संसर्ग से जो व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान और गाथा २५५ - २५७ १९५ दानादि करते हैं, वे भी शुद्धात्मा की भावना के अनुकूल नहीं हैं। इसकारण वे मोक्ष प्राप्त नहीं करते; सुदेव, सुमनुष्यत्व को प्राप्त करते हैं ह्र ऐसा अर्थ है । विषय-कषायों के अधीन होने से, विषय-कषाय रहित शुद्धात्मस्वरूप की भावना से रहित पुरुषों में ये सब करने से, ये कुदेवादि रूप में फलते हैं।" इन गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी ३ मनहरण, २ कवित्त और २ दोहा ह्न इसप्रकार कुल मिलाकर ७ छन्दों में और पण्डित देवीदासजी २ कवित्त और १ इकतीसा सवैया ह्न इसप्रकार कुल ३ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं । पण्डित देवीदासजी कृत छन्द इसप्रकार हैं ह्र ( कवित्त छन्द) यह सुभराग रूप जो जग मैं, कह्यौ सुभोपयोग सिरताज । जाकै विषै अपात्र पात्र कौं, भयौ सु और भेद उपराज ।। फल विपरीत है सु अति जाकौ, बुरौ भनौ जिन जीवन काज । जैसे जहां भूमि की जैसी, उपजै तहां तैसहू नाज ।। ७५ ।। इस जगत में जिस शुभराग को शुभोपयोग का सिरताज कहा जाता है; उसमें भी पात्र और अपात्र के भेद से फल में अन्तर आ जाता है। जिसप्रकार बीजरूप अनाज एक सा होने पर भी जैसी भूमि होती है, वहाँ वैसा ही अनाज उत्पन्न होता है, उसीप्रकार दानादि देने के शुभभाव एक से होने पर भी लेनेवाले पात्रों में पात्र-अपात्र के भेद से दान देनेवाले को प्राप्त होनेवाले फल में अन्तर पड़ जाता है। अपनी बुद्धि स सु जे जग मैं, कल्पित कथन करें अग्यान । ताकरि देव धर्म गुरु थापे, जे जन करें जाहि परवान ।। तिन्हि की नियम दान व्रत तिन्हि कौ, तिनि हि विषै मगन धरि ध्यान । पुन्य रूप उत्तिम सुर नर पद, लहैं जे न पावें निर्वान ||७६ ।। इस जगत में अपनी बुद्धि के अनुसार अज्ञानीजन अपनी कल्पना के अनुसार कथन करके देव, गुरु और धर्म की स्थापना कर लेते हैं और उनके वचनों को प्रमाणित मानकर व्रत, नियम, दानादि करते हैं; उनमें
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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