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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन यह आत्मा की अनादि-अनन्त शुद्ध पर्याय की बात है। स्वाभाविक षट्गुणी हानि - वृद्धिरूप जो अगुरुलघुपर्याय धारावाही अखंडित त्रिकाल समयवर्ती है, वह जीव की शुद्ध पर्याय है। यहाँ इसी शुद्ध पर्याय की बात कह रहे हैं। जीवास्तिकाय में शुद्ध और अशुद्ध दो तरह की पर्यायें होती हैं।" ७६ "जीव पर्याय से पर्यायान्तर रूप होकर जो शुद्ध या अशुद्धरूप उपजताविनशता है; वह कर्म के कारण नहीं; बल्कि अपनी तत्समय की योग्यता से ही उपजता विनशता है।" इस गाथा का सारांश इतना है कि ह्न जीव द्रव्यरूप से त्रिकाल सत्त्वरूप रहकर अपनी पर्यायगत योग्यता से और निरन्तर परिणमनशील स्वभाव के कारण स्वतः ही नाना पर्यायरूप से बदलता है। मनुष्य, देव, नारक आदि पर्यायों में जो जन्मता मरता रहता है, उपजता- विनशता रहता है; वह अपनी स्वतंत्र तत्समय की योग्यता से नष्ट एवं उत्पन्न होता है, कर्म के कारण नहीं । यद्यपि नाना पर्यायों रूप परिणमन में आयु और नाम कर्मों का उदय निमित्त होता; परन्तु जीव की तत्समय की योग्यता बिना निमित्तरूप परद्रव्य जीव की पर्यायों को पलटते नहीं हैं। जीव की निर्मल पर्यायें तो स्वयं से स्वाधीनपने होती ही हैं, मलिन पर्यायें भी स्वाधीनपने ही होती हैं; कर्मरूप परद्रव्य तो निमित्तमात्र होते हैं, वे विकार के कर्ता नहीं हैं। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद, नं. ११०, पृष्ठ ९०४, दिनांक १०-२-५२ (47) गाथा - १८ पिछली गाथा में कह आये हैं कि ह्न मनुष्य पर्याय का व्यय और नारकी पर्याय का उत्पाद होने पर भी जीव तो जीवभावरूप ही रहता है, वह पलट कर पुद्गल के भावरूप नहीं होता; क्योंकि जीव का उत्पादव्यय और ध्रौव्यपना स्वयं से है, पर से नहीं । अब प्रस्तुत गाथा में द्रव्य का कथंचित् उत्पाद - व्यय होने पर भी उसकी नित्यता प्रसिद्ध करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र सो व जादि मरणं, जादि ण णट्टो ण चेव उप्पण्णो । उप्पण्णो य विणट्टो, देवो मणुसो त्ति पज्जाओ ।। १८ । । (हरिगीत) जन्मे-मरे नित द्रव्य ही, पर नाश उद्भव न लहे । सुर-मनुज पर्यय की अपेक्षा, नाश-उद्भव हैं कहे ॥ १८ ॥ यद्यपि वही जीवद्रव्य पर्यायरूप से जन्म लेता है और मरता है, तथापि वह द्रव्य द्रव्यरूप से न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। पर्याय बदलने पर भी जीव नहीं बदलता । निष्कलंक शुद्ध पर्यायें एवं मलिन पर्यायें भी स्वयं से ही होती हैं; कर्मोदय रूप परद्रव्य तो निमित्तमात्र है । आचार्य अमृतचन्द्र यहाँ कहते हैं कि ह्न द्रव्य कथंचित् व्यय और उत्पादवाला होने पर भी मूलतः सदैव अविनष्ट और अनुत्पन्न रहता है। जो द्रव्य पूर्वपर्याय के वियोग से और उत्तरपर्याय के संयोग से होनेवाली उभय अवस्थाओं को अपने रूप करता हुआ विनष्ट होता और उत्पन्न होता दिखाई देता है, वही द्रव्य वैसी उभय अवस्थाओं में व्याप्त होनेवाले प्रतिनियत एक वस्तुत्व के कारण अविनष्ट एवं अनुत्पन्न ही होता है। द्रव्य की पर्यायें पूर्व - पूर्व परिणाम के नाशरूप और उत्तर - उत्तर परिणाम के उत्पादरूप होने से विनाश-उत्पाद धर्मवाली कहीं जातीं हैं, परन्तु वे
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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