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________________ गाथा - १७ पिछली गाथा में कह आये हैं कि जीवादि छहों द्रव्य भाव हैं, पदार्थ हैं तथा जीव का विशेष गुण ज्ञान-दर्शनरूप चेतना है और जीव की पर्यायें देव - मनुष्य - नारक - तिर्यंचरूप अनेक हैं। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि जीव सत् के उच्छेद एवं असत् के उत्पाद बिना ही स्वभाव एवं विभाव रूप परिणमन करता है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा । उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो ।। १७ ।। (हरिगीत) मनुज मर सुरलोक में देवादि पद धारण करें। पर जीव दोनों दशा में ना नशे ना उत्पन्न हो ||१७|| मनुष्य पर्याय से मरण कर जीव देव अथवा अन्य पर्यायरूप से उत्पन्न होता है। उन दोनों पर्यायों में जीव भाव नष्ट नहीं होता और नवीन जीव उत्पन्न नहीं होता। आचार्य अमृतचन्द्र ने टीका में यह कहा है कि ह्न भाव अर्थात् सत् का कभी नाश नहीं होता और अभाव अर्थात् असत् का कभी उत्पाद नहीं होता । प्रतिसमय अगुरुलघुत्वगुण की हानि - वृद्धि से उत्पन्न होनेवाली स्वभाव पर्यायों की संतति का विच्छेद न करनेवाली एक सोपाधिक मनुष्य पर्याय से जीव विनष्ट होता है और तथाविध देव, नारक, व तिर्यंच पर्यायों से उत्पन्न होता है; परन्तु जीवत्व से नष्ट नहीं होता और उत्पन्न नहीं होता । सत् के उच्छेद और असत् के उत्पाद बिना ही द्रव्य स्वभाव एवं विभाव रूप परिणमन करता है।" (46) जीव का कभी नाश-उत्पाद नहीं होता (गाथा १ से २६ ) ७५ कवि हीरानन्दजी ने इसी बात को हिन्दी पद्य में इसप्रकार कहा है ह्र (दोहा) मनुषरूप करि नष्ट है, देव इतरगति होइ । जीवभाव नासै नहीं, उपजै और न कोइ ।। ११२ ।। आत्मा मनुष्यत्व से नष्ट और देवत्व आदि इतरगति से उत्पन्न होता है, जीवत्व से न कभी नष्ट होता है न उत्पन्न । (दोहा) जीवभाव उपजै नहीं, विनसै नाहि कदाच । सदाकाल जग में लसै चेतनभाव अवाच ।। ११४ ।। जीवद्रव्य जीवत्वरूप से न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। वह अपने जीवत्वभाव से त्रिकाल विद्यमान रहता है। गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न जीव में मनुष्य पर्याय का व्यय होकर देव - नारकी - तिर्यंच और मनुष्य पर्यायें उत्पन्न होती हैं। 'वस्तु का नाश तथा उत्पत्ति नहीं होती। यहाँ विशेष बात यह है कि जो देवादि पर्यायें होती हैं, वे वस्तुतः तत्संबंधी नामकर्म के उदय से नहीं होती; परन्तु जीव की तत्समय की योग्यता के कारण होती हैं, स्वयं अस्तिकाय के सामर्थ्य से होती हैं। नामकर्म तो पुद्गलास्तिकाय है, जो जीव के परिणमन में निमित्त मात्र होता है। यदि पुद्गल के कारण जीव की पर्याय हो तब तो दोनों एक हो जायें; परन्तु ऐसा नहीं होता । इसीप्रकार 'आयु पूर्ण होने से मनुष्य पर्याय छूट गई' यह भी निमित्त का कथन है। वस्तुतः तो जीव अपनी तत्समय की योग्यता से मनुष्य पर्याय का त्याग कर देवपर्याय रूप होता है, इसमें एकसमय भी आगेपीछे नहीं होता ।'
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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