SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० पञ्चास्तिकाय परिशीलन आगे सवैया १०७ में कहा है कि - ज्ञान की अनुभूति ही शुद्ध ज्ञान चेतना है तथा जीव का अशुद्धरूप से कर्म व कर्मफल चेतना के रूप में परिणमन होता है। ___ आगे १०८, १०९ चौपाईयों में कहा है कि जिसमें सामान्य-विशेष हों, उसे भाव या द्रव्य कहते हैं । गुण सहभावी होते हैं तथा पर्यायें क्रमभावी होती हैं। जिनमें गुण पर्याय होते हैं वे द्रव्य हैं। प्रस्तुत गाथा १६ पर प्रवचन करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि - "यहाँ चेतना और उपयोग को जीव का गुण कहा है, क्योंकि वे पर्यायें होते हुए भी गुणों की हैं, इस अपेक्षा गुण कहा है तथा नारकी, देव, मनुष्य व तिर्यंच की व्यंजन पर्यायों को यहाँ पर्याय रूप से वर्णन किया है। समयसार में दृष्टि प्रधान कथन है और यहाँ ज्ञान प्रधान कथन है। वैसे द्रव्य-गुण-पर्याय ह्न तीनों को भाव कहते हैं; परन्तु यहाँ तो द्रव्य को ही भाव शब्द से सम्बोधित किया है। इन द्रव्यों में जीव द्रव्य प्रधान है, उसका स्वरूप बताने के लिए यहाँ जीव का असाधारण लक्षण कहते हैं। जीवद्रव्य का निज लक्षण तो ज्ञान चेतना ही है; परन्तु यहाँ चेतना के तीन भेद किये हैं ह्न १. ज्ञानचेतना, २. कर्मचेतना, ३. कर्मफलचेतना। दूसरा लक्षण शुद्धाशुद्ध चैतन्यपरिणतिरूप उपयोग है।। तीसरा लक्षण ह्र जीव की जो अलग-अलग प्रकार देव-नारकीमनुष्य और तिर्यंच-अशुद्ध व्यंजन पर्यायें हैं, वे भी जीव के लक्षण हैं। कर्म का वेदन कर्मचेतना है। राग-द्वेष-कर्म हैं, वे आत्मा के कार्य हैं। राग-द्वेषरूप विकार का वेदन करने से भी आत्मा जाना जा सकता हैं। इसकारण विकार का वेदन भी आत्मा का लक्षण है। उस रागादि विकार से ही यह नक्की होता है कि यह जीव है। राग-द्वेष में जीव ही एकाग्र होता है, जड़ नहीं। इसप्रकार राग-द्वेष जीव की पहचान कराते हैं। वैसे भी राग-द्वेष जीव के चारित्रगुण की ही विकारी पर्यायें हैं। जीव के गुणपर्यावों का कथन (गाथा १ से २६) जिसके द्वारा वस्तु लक्षित हो, उसे लक्षण कहते हैं। यहाँ राग के द्वारा जीव लक्षित होता है, इसलिए राग को जीव का लक्षण कहा है। समयसार में जहाँ राग को पुद्गल का कहा है, वह राग को टालने की अपेक्षा कहा है; परन्तु यहाँ राग-द्वेष की पर्याय जीव के अस्तित्व को बतलाती है; क्योंकि वह जीव में होती है, पुद्गल में नहीं; इसकारण राग-द्वेष को जीव का लक्षण कहा है। ___ यहाँ चेतना और उपयोग को गुण कहा है और नारकी, देव, मनुष्य, तिर्यंच की व्यंजनपर्यायों को पर्याय कहा है। समयसार में दृष्टिप्रधान कथन है और यहाँ पंचास्तिकाय में ज्ञानप्रधान कथन है। चेतना तीन प्रकार की है ह पहली ज्ञानभावरूप रहना 'ज्ञानचेतना' है। दूसरी कर्म का वेदन करना वह 'कर्मचेतना' है। जो दया, दान, काम-क्रोधादि भाव आत्मा में होते हैं, जीव उनका अनुभव करता है, अतः उनका वेदन करना जीव का लक्षण है। जगत के कोई पदार्थ आत्मा को राग नहीं कराते, राग करने की जीव की अपनी योग्यता है। तीसरी कर्मफल का वेदन करना 'कर्मफलचेतना है।' जो हर्ष-शोक आत्मा के द्वारा होता है, वह चैतन्य की सत्ता को बतलाता है, इसकारण हर्ष-शोक को आत्मा का गुण कहा है और वह आत्मा का लक्षण है; क्योंकि उसे आत्मा स्वयं करता है; कर्म उसे नहीं कराता; क्योंकि वह कर्म का गुण नहीं है। वह आत्मा की क्षणिक पर्याय में होता है; आत्मा के त्रिकाली स्वभाव में नहीं है। आत्मा में होनेवाले हर्ष-शोक कर्म के कारण से नहीं होते; परन्तु जब आत्मा हर्ष-शोकरूप परिणमता है तो बाहर में कर्म का उदय अवश्य होता है। हर्ष-शोक होते तो आत्मा में ही हैं; अत: उनका होना आत्मा के अस्तित्व को बताता है। इसप्रकार चेतना के ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफल चेतना ह्र ये तीनप्रकार कहे। प्रवचनसार में जो राग-द्वेषादि के परिणाम जीव के कहे हैं, वह वर्तमान स्वज्ञेय कैसा है ह यह बतलाने के लिए कहे हैं। (44)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy