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________________ गाथा-१६ विगत गाथा में यह कह आये हैं कि ह्र यद्यपि सत् का कभी नाश नहीं होता और असत् का कभी उत्पाद नहीं होता । तथापि सत् द्रव्य अपनेअपने गुण-पर्यायों से उत्पाद-व्यय करते रहते हैं। ऐसा ही वस्तु का सहजस्वभाव है। अब प्रस्तुत गाथा में जीव के गुण-पर्यायों का कथन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार हैं ह्न भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगो। सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा ।।१६।। (हरिगीत) जीवादि ये सब भाव हैं जिय चेतना उपयोगमय। देव-नारक-मनुज-तिर्यक् जीव की पर्याय हैं।।१६|| जीवादि छह द्रव्य भाव हैं, पदार्थ हैं तथा जीव चेतनामय है, अर्थात् ज्ञान-दर्शन उपयोगमय है और जीव की पर्यायें देव-मनुष्य-नारकतिर्यंचरूप अनेक पर्यायें हैं। आचार्य अमृतचन्द टीका में कहते हैं कि 'यहाँ इस गाथा में भावों का अर्थात् द्रव्यों, गुणों और पर्यायों का कथन किया गया है। यद्यपि उनके गुण व पर्यायें प्रसिद्ध हैं, तथापि अगली गाथा में जीव की बात उदाहरण के रूप में लेना है, इसलिए उस उदाहरण को प्रसिद्ध करने के लिए यहाँ जीव के गुणों और पर्यायों का कथन किया है। जीव की दो चेतनाएँ हैं ह्न एक ह्र ज्ञान की अनुभूतिस्वरूप शुद्धचेतना तथा दूसरी ह्न कार्यानुभूतिस्वरूप एवं कर्मफलानुभूतिस्वरूप अशुद्धचेतना है। उन दोनों भेदरूप चैतन्य का अनुसरण करनेवाला जो आत्मा का परिणाम उपयोग है, वह उपयोग भी शुद्धाशुद्धरूप है, सविकल्प-निर्विकल्प स्वरूप है। जीव के गुणपर्यायों का कथन (गाथा १ से २६) जीव की पर्यायें भी शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार की हैं। अगुरुलघुगुण की हानि-वृद्धि से उत्पन्न होनेवाली पर्यायें शुद्ध हैं और गाथा में कही गई देव-नारक-तिर्यंच-मनुष्य पर्यायें परद्रव्यों के सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं, इसकारण अशुद्ध हैं। कवि हीरानन्दजी भी इसी बात को पद्य में कहते हैं ह्र (दोहा) जीव आदि भावहु विषै, गुन चेतन उपयोग। सुर-नर-नारक-पसु विविध, परजै जीव संजोग ।।१०६।। (सवैया इकतीसा) ग्यान अनुभूति सोई ग्यान सुद्ध चेतना है, कर्म कर्मफलरूप प्रनमैं असुद्ध है। चेतनानुगामी परनाम सुद्धासुद्धरूप, भेद निरभेदवान उपयोग लुब्ध है।। देव-नर-नारक-पसु विभाव परजाय, सुद्ध दसा सुद्ध परजाय परबुद्ध है। ऐसें जीव भाव-परभाव सौं जुदा न आप, कालजोग पाय पाय आपही मैं सुद्ध है ।।१०७।। (चौपाई) भावनाम ताहीकौं कहिए, जहँ सामानिविसेस हु लहिए। सहभावी सामानि बखाना, अनुगत सहजभाव परमाना ।।१०८।। कादाचित्क जु है परिणामा, सों परजायविसेस विरामा। जिनमैं गुन परजाय जताये, सदाकाल ते दरब बताये।।१०९।। हीरानन्दजी उपर्युक्त दोहा १०६ में कहते हैं कि - जीव द्रव्य में तो ज्ञान-दर्शन उपयोग है, परन्तु विविध पर्यायों के भेद से संसारी जीव देवमनुष्य-नारकी और पशु के रूप होते हैं। (43)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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