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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन यहाँ (सप्तभंगी में) सर्वथापने का निषेधक एवं अनेकान्त का द्योतक 'कथंचित्' अर्थ में 'स्यात्' शब्द अव्ययरूप से प्रयुक्त हुआ है। भावार्थ यह है कि ह्र (१) द्रव्य स्वचतुष्टय की अपेक्षा से हैं। (२) परचतुष्टय की अपेक्षा से 'नहीं है।' (३) द्रव्य क्रमशः स्वचतुष्टय की और परचतुष्टय की अपेक्षा से है और नहीं है। (४) द्रव्य युगवत् स्वचतुष्टय की और परचतुष्टय की अपेक्षा से 'अवक्तव्य' है । (५) द्रव्य स्वचतुष्टय की अपेक्षा और युगपत् स्वपर चतुष्टय की अपेक्षा से है और अवक्तव्य है । (६) द्रव्य परचतुष्टय की अपेक्षा और युगपत् स्वपर चतुष्टय की अपेक्षा से नहीं है और अवक्तव्य है। (७) द्रव्य स्वचतुष्टय की अपेक्षा, परचतुष्टय की अपेक्षा और युगपत् स्वपर चतुष्टय की अपेक्षा से है, नहीं है और अवक्तव्य है' - इसप्रकार यह सप्तभंगी कही गई है।" ६२ भावार्थ यह है कि ह्न १. द्रव्य स्वचतुष्टय (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव ) की अपेक्षा से है । २. द्रव्य परचतुष्टय की अपेक्षा नहीं है । ३. द्रव्य क्रमशः स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की अपेक्षा से 'है और नहीं' है । ४. द्रव्य युगपद् स्वचतुष्टय की और परचतुष्टय की अपेक्षा 'अवक्तव्य' है । ५. द्रव्य स्वचतुष्टय की और युगपद् ह्न स्व- पर चतुष्टय की अपेक्षा से 'है और अवक्तव्य है ।' ६. द्रव्य परचतुष्टय और युगपद् स्व-परचतुष्टय की अपेक्षा से 'नहीं है और अवक्तव्य है।' ७. द्रव्य स्वचतुष्टय, परचतुष्टय और युगपत् स्व-परचतुष्टय की अपेक्षा से 'है, नहीं है और अवक्तव्य है।' ह्न इसप्रकार यहाँ सप्तभंगी कही गई है। ज्ञातव्य है कि सप्तभंगी का कथन दो प्रकार से होता है। नय सप्तभंगी और प्रमाण सप्तभंगी । १. स्वचतुष्टय अर्थात् स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव । स्वद्रव्य अर्थात् निज गुण पर्यायें की आधारभूत वस्तुस्वयं, + स्वक्षेत्र अर्थात् वस्तु का निज विस्तार, स्वकाल अर्थात् वस्तु की अपनी वर्तमान पर्याय तथा स्वभाव अर्थात् निजगुण स्वशक्ति । (40) स्याद्वाद शैली के सात भंग (गाथा १ से २६ ) ६३ एक धर्म के द्वारा एक धर्म को ही देखना नय सप्तभंगी है और एक धर्म के द्वारा सम्पूर्ण द्रव्य को देखना प्रमाण सप्तभंगी है। इस संदर्भ में कविवर हीरानन्दजी का निम्नांकित पद्य द्रष्टव्य है ह्र (सवैया इकतीसा ) अपनें चतुष्टयस अस्ति द्रव्य सदाकाल, परकै चतुष्टयसौं नासति विसेखिए । अस्ति नास्ति दौनौंरूप क्रम परिपाटी विषै, समकाल दोनों तातैं अवाचीक लेखिए । अस्तिक्रम अवाचीक दोनों एक भंग लसै, नास्तिक्रम अवाचीक छट्टा भंग पेखिए । अस्तिक्रम नास्तिक्रम अवाचीक एक तीनौं, भंग सात सेती वानी जैनग्रन्थ देखिए ।। द्रव्य सदाकाल अपने चतुष्टय से अस्तिरूप है तथा परचतुष्टय से नास्तिरूप है । क्रम परिपाटी से देखें तो अस्ति-नास्तिरूप है। दोनों समकाल होने से अवक्तव्य है। स्व की अपेक्षा वस्तु है, पर एक कथन नहीं कर सकते, अस्ति अवक्तव्य है तथा पर की अपेक्षा वस्तु में पर की नास्ति है, अतः नास्ति अवक्तव्य है और स्व की अपेक्षा अस्ति एवं पर की अपेक्षा नास्ति ह्न इन दोनों को एक साथ नहीं कह सकते अतः वस्तु अस्तिनास्ति अवक्तव्य है । गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “इस गाथा में सप्तभंगी का स्वरूप कहा है। यहाँ पंचास्तिकाय में प्रमाण सप्तभंगी है और प्रवचनसार में नय सप्तभंगी की बात की है। अनेकान्त का स्वरूप पदार्थविवक्षावश से सात प्रकार का है। वे सात भंग निम्नप्रकार हैं ह्न १. किसी एक अपेक्षा से द्रव्य अस्तिरूप है । २. किसी दूसरे धर्म की अपेक्षा से वही द्रव्य नास्तिरूप है । ३. किसी तीसरी
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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