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________________ ४० पञ्चास्तिकाय परिशीलन इसलिए प्रत्यभिज्ञान अर्थात् प्रत्यक्ष व परोक्ष का जोड़रूप ज्ञान के हेतुभूत किसी एक स्वरूप से ध्रुव रहती हुई और किन्हीं दो क्रमवर्ती स्वरूपों से नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न होती हुई एक ही काल में उत्पाद-व्यय-ध्रुव ह्र इन तीन अंशवाली अवस्था को धारण करती हुई वस्तु को सत् कहते हैं। इसीलिए सत्ता भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है; क्योंकि भाव और भाववान अर्थात् सत्ता और वस्तु का कथंचित् एक स्वरूप होता है। वह सत्ता एकरूप इसलिए है; क्योंकि वह त्रि-लक्षणवाले समस्त वस्तु विस्तार का सादृश्य सूचित करती है। तथा वह सत्ता सर्व पदार्थों में स्थित इसकारण है; क्योंकि उसके कारण ही सर्व पदार्थों में उत्पाद-व्ययध्रुवरूप त्रिलक्षण की तथा सत् की प्रतीति होती है। वह सत्ता सविश्वरूप है; क्योंकि वह विश्व के रूपों सहित अर्थात् समस्त वस्तुविस्तार के त्रिलक्षणवाले स्वभाव सहित है। वह सत्ता अनन्त पर्यायमय भी है, क्योंकि वह त्रिलक्षणवाली अनन्त द्रव्य-पर्यायरूप व्यक्तियों से व्याप्त है। सत्ता का स्वरूप ऐसा होने पर भी वह वस्तुतः निरंकुश नहीं है अर्थात् नि:प्रतिपक्ष नहीं है, विरुद्ध पक्ष रहित नहीं है। सप्रतिपक्ष है, प्रतिपक्ष सहित है। सामान्य-विशेष सत्ता का जो ऊपर वर्णन किया है, वैसी होने पर भी 'सर्वथा' वैसी नहीं है, एकान्त पक्ष वाली नहीं है, उसका दूसरा पक्ष भी है। (9) सत्ता का प्रतिपक्ष असत्ता है, (२) त्रिलक्षण का प्रतिपक्ष अत्रिलक्षण है, (३) एक का प्रतिपक्ष अनेकपना है, (४) सर्व पदार्थ स्थित का प्रतिपक्ष एक पदार्थ स्थितपना है, (५) सविश्वरूप का प्रतिपक्ष एकरूपना है, (६) अनन्त पर्यायमयता का प्रतिपक्ष एक पर्यायपना है। सत्ता दो प्रकार की है ह्र एक महासत्ता और दूसरी अवान्तरसत्ता। सर्व पदार्थ समूह में व्याप्त होनेवाली, सादृश्य अस्तित्व को सूचित करने वाली सामान्यसत्ता ही महासत्ता है तथा एक-एक निश्चित वस्तु में पंचास्तिकाय : उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य (गाथा १ से २६) रहनेवाली, स्वरूप अस्तित्व को सूचित करनेवाली अवान्तरसत्ता है। इसे विशेष सत्ता भी कहते हैं। ___ ध्यान रहे, महासत्ता अवान्तरसत्तारूप से असत्ता है और अवान्तरसत्ता महासत्तारूप से असत्ता है। इसप्रकार दोनों सत्ताओं में असत्तापना घटित होता है। इसीप्रकार अन्यत्र छहों बोलों में घटित किया जा सकता है। ___ इसप्रकार अपेक्षा समझने पर सभी कथन निर्दोष हैं; क्योंकि सत्तास्वरूप वस्तु का कथन सामान्य और विशेष की अपेक्षा दो नयों के आधीन है। उपर्युक्त कथन के स्पष्टीकरण में उसी महासत्ता में त्रिलक्षण एवं अत्रिलक्षणा धर्म घटित करते हुए कहा है कि ह्र “महासत्ता उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य ह्न ऐसे तीन लक्षणवाली है, इसलिए वह त्रिलक्षणा है तथा वस्तु उत्पन्न होनेवाले स्वरूप का अकेला उत्पाद ही एक लक्षण है, नष्ट होनेवाले स्वरूप का अकेला व्यय ही एक लक्षण है और ध्रुव रहनेवाले स्वरूप का अकेला ध्रुव ही एक लक्षण है; इसलिए उन तीन स्वरूपों में से प्रत्येक की अवान्तर सत्ता एक-एक लक्षणवाली ही होने से 'अत्रिलक्षणा' है। इसीप्रकार महासत्ता लोक के समस्त पदार्थों में सत्-सत्-सत् ह्न ऐसा समानपना दर्शाती है; इसलिए वह एक है तथा एक वस्तु की स्वरूपसत्ता अन्य किसी वस्तु की स्वरूपसत्ता नहीं है; इसलिए जितनी वस्तुएँ उतनी स्वरूप सत्तायें हैं। ऐसी स्वरूप सत्तायें अर्थात् अवान्तरसत्तायें अनेक हैं। इसप्रकार सामान्य-विशेषात्मक सत्ता के ये पक्ष हैं ह्न एक महासत्तारूप तथा दूसरा अवान्तरसत्ता रूप होने से (१) सत्ता भी है और असत्ता भी है। (२) त्रिलक्षणा भी है और अत्रिलक्षणा भी है। (३) एक भी है और अनेक भी है। (४) सर्व पदार्थ स्थित भी है और एक पदार्थ स्थित भी है। (५) सविश्वरूप भी है और अविश्वरूप भी है (६) अनन्त पर्यायमय भी है (29)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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