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________________ गाथा ७ विगत गाथा में छह द्रव्यों के अस्तित्व की चर्चा की। अब प्रस्तुत गाथा में छह द्रव्यों के स्वरूप की चर्चा है। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र अण्णोण्णं पविसंता देंता ओगासमण्णमण्णस्स । मेलंता वि य णिच्चं संग सभावं ण विजहंति ||७|| (हरिगीत) परस्पर मिलते रहें अरु, परस्पर अवकाश दें। परस्पर मिलते हुए भी, छोड़ें न स्व-स्वभाव को ॥७ ॥ यद्यपि वे द्रव्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, परस्पर एक-दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर मिलते हैं; तथापि सदा अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं ह्र “यहाँ छह द्रव्यों का परस्पर अत्यन्त संकर होने पर भी अर्थात् मिलाप होने पर भी वे अपने-अपने निश्चितस्वरूप से च्युत नहीं होते। इसलिए परिणामवाले होने पर भी वे नित्य हैं। ऐसा पहले (छठवीं गाथा में) कहा था और इसीलिए वे एकत्व को प्राप्त नहीं होते; और यद्यपि जीव तथा कर्म को व्यवहारनय के कथन से एकत्व है तथापि वे (जीव तथा कर्म) एक दूसरे के स्वरूप को ग्रहण नहीं करते।" कवि श्री हीराचन्दजी इस गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए कहते हैं (सोरठा) जीव दरब चिद्रूप, जदपि करमसौं मिलि रहे । तदपि न तजै स्वरूप, निहचै नय अवलोकतें ।। ६० ।। यद्यपि चैतन्यस्वरूपी जीवद्रव्य संसार अवस्था में कर्मों से मिल रहे हैं, तथापि निश्चयनय से वे अपना-अपना स्वरूप नहीं छोड़ते। नोट: इस गाथा के विषय में गुरुदेव श्री कानजीस्वामी द्वारा लिखा हुआ नहीं मिला। • (28) गाथा ८ विगत गाथा में यह कह आये हैं कि ह्न यद्यपि छहों द्रव्य क्षीरनीर के समान एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, तथापि अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। अब इस गाथा में सत्ता (अस्तित्व) का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र सत्ता सव्व्पयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया । भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥८॥ (हरिगीत) सत्ता जनम-लय- ध्रौव्यमय अर एक सप्रतिपक्ष है। सर्वार्थ थित सविश्वरूप-रु अनन्त पर्ययवंत है ॥८ ॥ सत्ता, उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक, एक, सर्वपदार्थस्थित, सविश्वरूप, अनन्तपर्यायमय और सप्रतिपक्ष है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में स्पष्टीकरण करते हैं कि “यहाँ अस्तित्व का स्वरूप कहा है। अस्तित्व अर्थात् सत्ता नामक सत् का भाव सत्त्व । यहाँ सत्त्व का अर्थ है सत्पना, अस्तित्वपना या विद्यमानपना। विद्यमान वस्तु अर्थात् सत् स्वरूप वस्तु न तो सर्वथा नित्य ही होती है और न सर्वथा क्षणिक ही । यदि सर्वथा नित्य माना जाय तो सर्वथा नित्य वस्तु को क्रमभावी भावों का अभाव होने से अर्थात् परिणमन न होने से विकार कैसे होगा, परिवर्तन कहाँ से होगा ? और सर्वथा क्षणिक मानने से क्षणिक वस्तु में वास्तव में प्रत्यभिज्ञान का अभाव होने से एक प्रवाहपना नहीं रह सकेगा। वस्तु सर्वथा क्षणिक हो तो 'यह वही वस्तु है, जिसे पहले देखा था' ह्र ऐसा ज्ञान कैसे होगा ?
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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