SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन निजस्वरूप की पहचान से ही होंगे। इसलिए पर व पर्यायों से भेद विज्ञान करके अब अपने-अपने ज्ञायक स्वरूप शुद्धात्मा को जानें। आगे चौपाई नं. ३७९ से ४०४ में कहा कि ह्र जिन्होंने छहों द्रव्यों के गुण-पर्यायों को भलीभाँति जाना, उन्हें ही अपने-पराये की पहचान हुई है। जो जीव और परद्रव्यों के भेद-प्रभेद नहीं जानेंगे, वे न स्वयं को जान पायेंगे और न अन्य को ही नहीं पहचान सकेंगे। इन सब द्रव्यों में एक जीव ही चेतन है, शेष पाँच द्रव्य अचेतन हैं। संसारी जीवों ने मोहवश स्वयं को नहीं जाना, स्त्री, पुत्र परिवार एवं तन-मन-धन में ही अटका रहा, इस कारण संसार में भटकता रहा। कवि कहते हैं कि ह्न अब तो संसारी जीवों चेत जाना चाहिए, अन्यथा चतुर्गति का भ्रमण नहीं मिटेगा । वे कुन्दकुन्द मुनिराज परम उपका हैं, जिन्होंने जगत के जीवों को पाँच अस्तिकाय की स्वतंत्रता का ज्ञान कराकर उनका अज्ञान दूर कर दिया है।" इसप्रकार मुनिराज कुन्दकुन्ददेव ने पंचास्तिकाय लिखकर पंचम गति का पन्थ दिखा दिया है और आचार्य अमृतचन्द्र ने टीका में विस्तार से स्पष्टीकरण करके तत्त्वज्ञान को और भी सुगम कर दिया तथा कवि हीरानन्दजी ने हिन्दी कवित्त रचकर हिन्दी भाषियों का मार्ग सुगमकर दिया। इस सबके बाद गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने पंचास्तिकाय पर प्रवचन करके पंचास्तिकाय का हृदय ही खोलकर रख दिया है। मैंने तो मात्र सभी मनीषियों का गहराई से अध्ययन करके स्वान्तसुखाय एवं सामान्यजन हिताय सरलतम हिन्दी भाषा से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। मैं अपने उद्देश्य में कहाँ तक सफल हुआ? यह बात मैं पाठकों पर ही छोड़ता हूँ । एतदर्थ सभी पूज्य मुनीन्द्र वृन्द को सविनय वंदन तथा कविवर हीरानन्दजी एवं गुरुदेव श्री कानजीस्वामी को यथायोग्य नमन एवं अभिनन्दन | - रतनचन्द भारिल्ल ५०८ (263) अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १७३) ५१७
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy