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________________ ५०६ ५०७ पञ्चास्तिकाय परिशीलन तौ बहका भ्रम मानि, रिजुमैं सरप समाना। थाणुरूपकौं पुरुष, सीपकौं रजत पिछाना ।। काललब्धि-बल पाय, आप जिन समझा अपना । तब सब भ्रम मिटि गया, मुकत निज है ग्यानपना ।।३२१ ।। (सवैया इकतीसा ) जेते भये सब सिद्ध सिवालै मैं, ते-ते सबै निजरूप कै जानैं । और जु होहिं हैं होहिंगै आगै पै, तेऊ सबै निजरूप पिछा. ।। तातें ब जानपना निज जानिए, आनकौं हेय हिये महि आनें । भेदविग्यान सु आप रु आन है, ता” ए द्रव्य बखान प्रमानें।।३२२ ।। (चौपाई) छहौं दरवकै गुन-परजाये, जिन जीवनकै हिये सुहाये। तिनही जिय निजपर पहिचान्या, अपना मरम आपमैं जान्या ।।६९।। जो जियि दरव भेद नहीं जाने, सो कैसैं करि स्वपरि पिछाने। जबलगि स्वपर भेद नहिं सूझै, तबलगि आपा कैसे बूझे ।।३९७ ।। यात गुन-परजैका लखना, दरव माहिं आदेय परखना। सबमैं चेतन परखनवाला, पाँचौं जड़ वर” तिरकाला ।।३९८ ।। विषय-कषाय धायकरिलागा, मोह-गहल-ममता-रसपागा। सुत-दारा-धन-तन-मन मेरा, सबै जगतमैं किया बसेरा ।।३९९।। अपना रूप न रंचक जाना, परमैं दौर दौर लपटाना। देखै सनै अनुभये सारे, बारबार परभाव निवारै ।।४०० ।। अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १७३) अब तौ याकौ चहिए चेता, 'को हूँ 'को पर' जग यहु केता। विषय-विरमकरि जानै आपा, भेदविग्यान सहज गुन मापा ।।४०१।। बहुत बढ़ाव कहाँलौं कीजै, जानपना अनुभौ-रस पीजै। जैसा कछु मुनिराज बताया, जानपना पंचासतिकाया ।।४०२।। तैसा याकौं चहिए जाना, और भाँतिकरि जग भटकाना। कुंकुंद मुनि जग-उपकारी, प्रगट किया जनहिय-हित सारी ।।४०३।। पंचासतिकाया हित सारा, कुंदकुंद मुनिराज विथारा । जे इस हितका अनुभौ करई, ते अपना गुन सहजहिं धरई ।।४०४।। (कुण्डलिया) पंचासिकाया सकल, पूरन भया गरंथ । कुंकुंद मुनिराजकृत, पंचमगतिका पंथ ।। पंचमगतिका पंथ, प्रगट जामैं दिखराया। आपरूप पररूप, लखन सब मुनिजन भाया ।। आप उपादै लस, हेय पर-पद सब बंचा। सकल भेद जगमगै, अस्तिकाया जह पंचा ।।४०५ ।। (सोरठा) पंचमगतिका पंथ, सिवगामीकौं प्रगट है। जिनवानी-रस-मंथ, कालजोग चेतन लहै ।।४०६ ।। उपर्युक्त पद्यों में कवि हीरानन्दजी ने उपर्युक्त छन्दों में जो कहा, उसका भावार्थ यह है कि ह्न “जिनधर्म की प्रभावना के निमित्त से एवं प्रवचन भक्ति के प्रमोद से मैंने पंचास्तिकाय संग्रह की हिन्दी काव्य में रचना की है। जिनराज के परम वैराग्य प्रेरक उपदेश को जानकर मैंने आगम के अनुरागवश पंचास्तिकायों का उपदेश करके यह काम पूरा किया है। इस पंचास्तिकाय संग्रह में द्वादशांग वाणी का सार भरा है। आगे के सवैया में कवि ने कहा है कि ह्न जितने भी आज तक सिद्ध हुए वे सब निजस्वभाव के जानने से ही हुए हैं तथा जो आगे होंगे वे भी (262) १. रिजू = रस्सी, २. थाणु = स्थाणु-ढूंठ, ३. सौम्य को रजत = सफेद छिपनी को जंदी समझना।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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