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________________ ४८४ पञ्चास्तिकाय परिशीलन ___ गुरुदेव श्री कानजीस्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्र “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। चिदानन्द भगवान आत्मा की प्रतीति ज्ञान एवं रमणता मोक्ष का कारण होने से धर्मी जीवों को सेवन करने योग्य है। तथा जब तक रत्नत्रय की पूर्णता नहीं होती, तबतक राग से बन्धन भी होता है, इस कारण रत्नत्रय को कथंचित् बंध का कारण भी कहा है; परन्तु वस्तुतः तो बात यह है कि ह्र रत्नत्रय के साथ सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा वगैरह में जो राग है, वही बंध का कारण है, रत्नत्रय बंध का कारण नहीं है। ज्ञान तो आत्मा का स्वभाव होने से मोक्ष का ही कारण है। ज्ञानी के रत्नत्रय के साथ पाँच व्रतादि के जो शुभभाव होते हैं, वे शुभभाव बंध के कारण हैं। ज्ञायक स्वभाव की प्रतीति रूप निश्चय सम्यक्दर्शन तो निर्विकल्प है, वह बंध का कारण नहीं है। देव-शास्त्र-गुरु की व्यवहार श्रद्धा, नवतत्त्व में क्षयोपशमभाव तथा पंच महाव्रत की वृत्ति शुभराग है। ऐसे व्यवहार श्रद्धा ज्ञान चारित्र सहित साधकदशा की यह बात है। ज्ञानी को जो निश्चय रत्नत्रय है, वह तो मोक्ष का ही कारण है, उसके साथ जो पर की ओर का श्रद्धा-ज्ञानचारित्र है, वह राग है, बंध का कारण है। उसे व्यवहार से मोक्ष का कारण भी कहते हैं। इसीलिए यहाँ ऐसा कहा है कि रत्नत्रय कथंचित् बंध का कारण है और कथंचित् मोक्ष कारण है।" इसप्रकार इस गाथा में यह कहा है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र कथंचित् मोक्ष का हेतु है और कथंचित् बन्ध हेतु हैं। यदि अल्प पर-समय प्रकृति के साथ हों तो बंध के हेतु होते हैं और पर-समय प्रवृत्ति से पूर्ण निर्वृत्त होते हैं तो साक्षात् मोक्ष कारण होते हैं। इसप्रकार गुरुदेव श्री ने भी रत्नत्रय को बंध व मोक्ष के कारणपने का स्पष्टीकरण किया। गाथा - १६५ विगत गाथा में दर्शन-ज्ञान-चारित्र का कथंचित् बंध हेतुपना बताया। अब प्रस्तुत गाथा में सूक्ष्म पर-समय के स्वरूप का कथन किया है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो।।१६५।। (हरिगीत) शुभभक्ति से दुःखमुक्त हो जाने यदि अज्ञान से। उस ज्ञानी को भी परसमय ही कहा है जिनदेव ने||१६५|| सुद्ध संप्रयोग से अर्थात् शुभ भक्तिभाव से दुःख से मुक्ति होती है ह्र कोई यदि अज्ञान से ऐसा माने अर्थात् शुभभाव की ओर झुके तो वह ज्ञानी भी पर समयरत है ह ऐसा माना जाता है। तात्पर्य यह है कि यदि कोई ज्ञानी अज्ञान के कारण ऐसा माने कि ह्र 'अरहंतादि के प्रति भक्ति-अनुराग वाली मन्द शुद्धि से भी क्रमशः मोक्ष होता है तो वह भी सूक्ष्म पर-समय रत है। यहाँ अज्ञान के कारण का अर्थ 'मिथ्यात्व के वश नहीं, बल्कि रागांश के कारण है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि ह्र यह सूक्ष्म परसमय के स्वरूप का कथन है। सिद्धि के साधनभूत अर्हदादि के प्रति भक्तिभाव से अनुरंजित अर्थात् सराग चित्तवृत्ति ही शुद्ध संप्रयोग का अर्थ है। अब अज्ञानलव के आवेश से अर्थात् अल्प अज्ञानवश उत्साह में आकर यदि ज्ञानवान भी ऐसा माने कि शुद्ध संप्रयोग से मोक्ष होता है ह्र ऐसे अभिप्राय द्वारा खेद-खिन्न होता हुआ उस शुद्धसंयोग में अर्थात् शुभभाव में प्रवृत्ति करे तो तबतक वह भी रागलव अर्थात् किंचित् राग के सद्भाव के कारण जब वह भी परसमयरत (251) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २३०, दिनांक ८-६-५२, पृष्ठ-१८६०
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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