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________________ ४८३ गाथा - १६४ विगत गाथा में कहा गया है कि ह्र 'सभी संसारी प्राणी मोक्ष प्राप्ति के योग्य नहीं होते, केवल भव्य जीव ही मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं।' ___ अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्रदर्शन-ज्ञान-चारित्र का कंथचित् हेतुपना है और जीवस्वभाव में नियत चारित्र का साक्षात् हेतुपना है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि । साधूहि इदं भणिदं तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा।।१६४।। (हरिगीत) दृग-ज्ञान अर चारित्र मुक्तिपन्थ मुनिजन ने कहे। पर ये ही तीनों बंध एवं मुक्ति के भी हेतु हैं ।।१६४।। दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग हैं। इसलिए वे सेवन योग्य हैं; परन्तु उनसे बंध भी होता है और मोक्ष भी होता है। आचार्य अमृतचन्द्र देव टीका में कहते हैं कि ह्र “दर्शन ज्ञान चारित्र कथंचित् मोक्ष हेतु एवं कथंचित् बंध हेतु भी हैं। यह दर्शन-ज्ञान-चारित्र यदि अल्प भी परसमय प्रवृत्ति के साथ हों तो उष्णघृत की भाँति कथंचित् विरुद्ध कार्य के कारण अर्थात् बंधरूप कार्य के कारणपने की व्याप्ति के कारण बंध का हेतु भी है।" ___ जब वे दर्शन-ज्ञान-चारित्र समस्त पर समय प्रवृत्ति से निवृत्त रूप स्व-समय की प्रवृत्ति के साथ संयुक्त होते हैं तब विरुद्ध कार्य का कारण निवृत्त हो गया होने से साक्षात् मोक्ष कारण ही है इसलिए 'स्वसमय प्रवृत्ति' नाम के चारित्र में साक्षात् मोक्षमार्गपना घटित होता है। इसी भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं, जो इसप्रकार हैं ह्र अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३) (दोहा ) दरसन ज्ञान चरित्र ए, मारग सिव के सेय । साधूजन यों कहत हैं, बंध-मोख विधि एय।।२२६ ।। (सवैया इकतीसा) एई दृग-ग्यान चारु चारित त्रिकार जानि, पर कै मिलाप सेती बंधन प्रगट है। अपने सुभाव जब होहिं तीनों एक रूप, स्व समै कहावै तब मोखरूप वट है।। जैसैं अग्नि संजोग घीव दाहक स्वरूप होइ, अग्नि संजोग मिटै सेती सीतता सु घट है। तैसैं स्व चरित्री जीव आपतै पवित्री होइ, सुद्ध मोख मारग मैं सबही सुलट है।।२२७ ।। (दोहा ) मोख पंथ के पथिक कौं, सिव पदार्थ पाथेय । दरसन ग्यान चरित्र पद, और सकल पद हेय।।२२८ ।। कवि हीरानन्दजी के काव्य का सार यह है कि ह्र सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र मोक्ष के मार्ग हैं। ये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र जब तीनों एकरूप होते हैं तो स्व-समय कहलाते हैं और मोक्ष के कारण बनते हैं। तथा जब इनका मिलाप परद्रव्य के साथ होता है तो ये ही श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र संसार के कारण बनते हैं। जैसे ह्र अग्नि के संयोग से घी दाहक स्वरूप हो जाता है तथा अग्नि का संयोग मिटते ही शीतल हो जाता है, उसीप्रकार स्वरूप में लीन होने से जीव पवित्र होता हुआ शुद्ध मोक्षमार्ग को प्राप्त करता है और पर के संयोग से पर में एकत्व से ये संसार के कारण बनते हैं। इसप्रकार मोक्षमार्ग के पथिक को दर्शन ज्ञान-चारित्र-पाथेय हैं, शेष सब हेय हैं।" (250)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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