SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन अपना कर अपने स्वरूप में ही रमते-जमते हैं और मोक्षमार्ग सुगम कर लेते हैं। गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी उक्त गाथा पर प्रवचन करते हुए कहते हैं कि ह्र सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है, वह सम्यक्-दर्शन-ज्ञानपूर्वक होता है। मुनि अन्तरबाह्य परिग्रह से रहित होते हैं। निश्चय से स्वरूप की एकाग्रता ही चारित्र है। आचार्य श्री जयसेन स्वामी अपनी टीका में लिखते हैं कि ह्न मुनि संग विमुक्त होते हैं। उनके तीनों कालों में तीन लोक के समस्त पदार्थों के प्रति उदासीनता रहती है। पाँचों पापों का मन-वचन-काय कृतकारित अनुमोदना आदि नव प्रकार से त्याग रहता है। चैतन्य में से वीतरागता का आनन्द प्रवाहित होता है। आत्मा के प्रदेश-प्रदेश से आनन्द का अमृत झरता है। ऐसी मुनिदशा होती है। वे मुनि सहजानन्द का अनुभव करते हैं। इसी गाथा के विषय में पृष्ठ १७९० पर गुरुदेवश्री ने कहा है कि - शुभाशुभभाव से रहित अंतरंग में लीनता होना शुद्धभाव हैं। इसके पूर्व चैतन्य व जड़ के बीच भेदज्ञान होना चाहिए। ज्ञान स्वभावी आत्मा से जड़ पदार्थ छूटते ही नहीं है। संयोगी दृष्टि वालों को स्वभाव की प्रतीति नहीं होती, जबकि स्वभाव व रागादि विकार - दोनों भिन्नभिन्न हैं - ऐसा नक्की हो तो धर्म होता है।" उपर्युक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि ह्न आत्म स्वभाव में, निजगुण-पर्यायों में निश्चल स्वरूप का अनुभव करने वाले मुनियों को स्वसमय कहते हैं। इसी अवस्था का नाम स्व-चारित्र हैं। यही मुक्तिमार्ग है, अर्थात् इसी मार्ग से मुक्ति की प्राप्ति होती है। गाथा - १५९ विगत गाथा में स्वचारित्र में प्रवर्तन करने वाले पुरुष का कथन है। प्रस्तुत गाथा में शुद्ध स्वचारित्र प्रवृत्ति के मार्ग का कथन है। मूल गाथा इसप्रकार है । चरियं चरदि सगं सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा। दसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो।।१५९।। (हरिगीत) पर द्रव्य से जो विरत हो निजभाव में वर्तन करे। गुणभेद से भी पार जो वह स्व-चरित को आचरे||१५९|| जो पर द्रव्यात्मक भावों से अर्थात् परद्रव्य रूप भावों से रहित स्वरूप में वर्तता हुआ अपने दर्शन-ज्ञान रूप आत्मा में अभेद रूप आचरण करता है, वह स्व-चारित्र आचरता है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र स्वामी टीका में कहते हैं कि यह शुद्ध स्वचारित्र प्रवृत्ति के मार्ग का कथन है। ___ जो योगीन्द्र समस्त मोह समूह से बाहर होने के कारण परद्रव्य के स्वभावरूप भावों से रहित स्वरूप में बर्तते हैं तथा स्वद्रव्य के अभिमुख अनुसरण करते हुए निजस्वभाव रूप दर्शन-ज्ञान-भेद को भी आत्मा में अभेदरूप से आचरते हैं, वे ही वास्तव में स्व-चारित्र को आचरते हैं। इसप्रकार शुद्ध पर्याय परिणत द्रव्य के आश्रित अभिन्न साध्य-साधन भाववाले निश्चयनय के आश्रय से मोक्षमार्ग का निरूपण किया गया है। इसप्रकार शुद्ध पर्याय परिणत द्रव्य के आश्रित अभिन्न साध्य-साधन भाववाले निश्चयनय के आश्रय से मोक्षमार्ग का निरूपण किया गया है। तथा जो पहले १०७वीं गाथा में दर्शाया गया था, वह स्व-पर हेतुक पर्याय के आश्रित भिन्न साध्य-साधन भाववाले व्यवहारनय के आश्रय से अर्थात् व्यवहारनय की अपेक्षा से प्ररूपित किया गया था। इसमें परस्पर विरोध नहीं है; क्योंकि सुवर्ण और सुवर्ण पाषाण की भाँति निश्चय (242) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २२२, दि. ३१-५-५२, पृष्ठ-१७९०
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy