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________________ गाथा - १५८ विगत गाथा में कहा है कि ह्र जो पुरुष परसमय में प्रवृत्ति करता है, उसे बंध होता है। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्रस्वसमय के आचरण वाला कौन है? मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जो सव्वसंगमुक्को णण्णमणो अप्पणं सहावेण । जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो।।१५८।। (हरिगीत) जो सर्व संगविमुक्त एवं अनन्य आत्मस्वभाव से। जाने तथा देखे नियत रह उसे चारित्र है कहा ।।१५८।। जो सर्व संग से मुक्त और अनन्य मनवाला वर्तता हुआ अपने आत्मा को ज्ञान-दर्शन रूप स्वभाव द्वारा नियतरूप से (स्थिरतापूर्वक) जानतादेखता है, वह जीव स्वचारित्र आचरता है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी समय व्याख्या टीका में कहते हैं कि ह्र "यह स्वचारित्र में प्रवर्तन करने वाले के स्वरूप का कथन है। जो जीव वास्तव में निरूपराग उपयोग वाला अर्थात् शुद्धउपयोग वाला होने के कारण सर्वसंग मुक्त वर्तता हुआ परद्रव्य से विमुख होने के कारण अनन्य मनवाला अर्थात् जिसकी परिणति अन्य के प्रति नहीं है ऐसा वर्तन करता हुआ आत्मा को अपने ज्ञान-दर्शन स्वभाव के द्वारा नियत रूप से अर्थात् अवस्थित रूप से जानता-देखता है, वह जीव वास्तव में स्वचारित्र आचरता है; क्योंकि वास्तव में आत्मा में सामान्य अवलोकन रूप से वर्तना स्व-चारित्र है।" तात्पर्य यह है कि ह्र जो जीव शुद्धोपयोग में वर्तता है और जिसकी अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३) ४६५ परिणति पर की ओर नहीं जाती तथा आत्मा को स्वाभाविक ज्ञान-दर्शन परिणाम द्वारा स्थिरतापूर्वक जानता-देखता है, वह जीव स्व-चारित्र का आचरण करनेवाला है; क्योंकि दर्शन-ज्ञान स्वरूप आत्मा में मात्र दर्शन ज्ञानरूप से परिणमित होकर रहना स्वचारित्र है। कवि हीरानन्दजी उक्त कथन को काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा ) सकल संग परिहरण करि, एकपना जो आप। जानै-देखै नियत सो, स्व-समय जीव-प्रताप।।२०२।। (सवैया इकतीसा) सुद्ध उपयोग जान्या सब संग मैल मान्या, पररूप त्यागा आप रूप एक मनसा। अपना सुभाव एक दृग ज्ञान रूप ताकौं, देखै जानै आन और देखै है सुपन सा ।। सोई स्वचारित्र चारी आप मैं विहारी जीव, तिनही मोख जाने की कीनी है सुगमता। तातें दृग-ज्ञान-रूप आत्मा सरूप सारा, चारित सुकीय धारा सुद्ध है गगन सा।।२०३।। (दोहा) दरसन ज्ञान सरूप में, आपरूप गत जीव । सोई स्वचरित जानिए, स्व-समयरूप सदीव।।२०४ ।। कवि हीरानन्दजी उक्त काव्यों में चारित्र का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि ह्र ज्ञानी जीव स्व-समय की श्रद्धा के प्रताप से जगत के मात्र ज्ञाता-दृष्टा रह जाते हैं तथा सकल परिग्रह का त्याग कर अपने एकत्व स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। अपने शुद्धोपयोग को अपना कर समस्त परिग्रह को मैल मानते हैं। पर का त्याग करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप अपने स्वभाव को (241)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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