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________________ गाथा - १२२ विगत गाथा में व्यवहार जीवत्व के एकांत की मान्यता का खण्डन किया। अब प्रस्तुत गाथा में जीव का लक्षण बताया जा रहा है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जाणदिपस्सदिसव्वं इच्छदि सुक्खं बिभेदि दुक्खादो। कुव्वदि हिदमहिदं वा भुजंदि जीवो फलं तेसिं।।१२२।। (हरिगीत) जिय जानता अर देवता, सुख चाहता दुःख से डरे। भाव करता शुभ-अशुभ फल भोगता उनका अरे||१२२|| जीव जानता-देखता है, सुख चाहता है एवं दुःख से डरता है। हित-अहित को जानता है और उनके फल को भोगता है। आचार्य अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “चैतन्यस्वभावपने के कारण जानने-देखने की क्रिया जीव ही करता है। जहाँ जीव है, वहीं चार अरूपी अचेतन द्रव्य भी हैं; वे जिसप्रकार जानने और देखने की क्रिया के कर्ता नहीं है, उसी प्रकार जीव के साथ सम्बन्ध में रहे हुए कर्म-नोकर्म रूप पुद्गल भी उस क्रिया के कर्ता नहीं हैं। चैतन्य के विवर्तनरूप संकल्प की उत्पत्ति जीव में होने के कारण सुख की अभिलाषा रूप क्रिया का जीव ही कर्ता है, अन्य नहीं है। शुभाशुभ कर्म के फल में प्राप्त इष्टानिष्ट विषय भोग क्रिया का सुख-दुःख स्वरूप स्वपरिणाम क्रिया की भाँति जीव ही कर्ता है, अन्य नहीं।" कवि हीरानन्दजी इसी विषय को काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा) जाने देखै सरब कौं, इच्छे सुख-दुःख-भीति । करै सुहित अरु अहित कौं, भुंजै फल विपरीत।।६५ ।। जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३) (सवैया इकतीसा) चेतना-सुभाव जीव तारौं सब देखे जाने, नभ आदि जैसे तैसै पुग्गल अचेत हैं। सुख का अभिलाषी होइ दुःख मैं उदेग जोइ, हिताहित रूप जीव कल्पना समेत है ।। शुभाशुभ कर्मफल इष्टानिष्ट-योग-क्रिया, ताका करतार जीव चेतना निकेत है। एती लोकक्रिया जीव जाही समै लोकि जाने, ताही समै लोक न्यारा सुद्धता उपेत है।।६६ ।। (दोहा) जीवक्रिया जिन जीव ने, लखी जीवमहिं सार। तिन अजीव-किरिया तजी, पाया भव निरधार।।६७ ।। उपर्युक्त पद्यों में कवि हीरानन्दजी ने कहा है कि ह्न जीव का स्वभाव जानना-देखना है, संसारावस्था में सुख-दुःख की इच्छा करना है तथा हिताहित का फल भोगता है तथा आकाश आदि पुद्गल की भाँति अचेत हैं। जो दुःख से डरते हैं एवं सुख के अभिलाषी हैं, अपने हिताहित को समझते हैं, तथा शुभ-अशुभ कर्मों के फल जो इष्टानिष्ट संयोग हैं उन्हें वेदता है, वह चेतना गुण युक्त जीव है। जब जीव ऐसी लोक क्रिया को लौकिक क्रिया समझे तभी लोक से न्यारा होकर शुद्धता को प्राप्त कर लेता है। गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “प्रथम तो जानना-देखना मात्र जीव की क्रिया है, अन्य द्रव्यों की नहीं तथा सुख चाहना और दुःख से डरना, ये संसारी जीव की क्रिया है। अजीवों को सुख दुःख होता नहीं है। शुभ-अशुभ आचरण भी संसारी जीव का कर्तृत्व है। हिंसाअहिंसा, पुण्य-पाप की क्रिया भी संसारी जीव की क्रिया है। अपने कार्य के फल में सुख-दुःख भी जीव भोगता है। दुःख वेदन देह में नहीं, जीव में होता है। ऐसा समझने पर ही जीव पर से भिन्न स्वयं की पहचान करता है। (201)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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