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________________ ३८२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन कवि हीराचन्दजी उक्त कथन को काव्य में कहते हैं। (दोहा) इन्द्रिय जीव स्वभाव नहि, षट्प्रकार फुनि काय । जो इनमैं ज्ञायक लसै, सोई जीव कहाय।।६२ ।। ( सवैया इकतीसा ) एई एकइन्दी आदि पृथ्वी कायकादि भेद, जीव पुद्गल सदा एक अवगाह है। विवहारनय देखें जीव की प्रधानता , जीवनाम पावै सवै दौनौं एक राह हैं ।। निहचै नाहिं तिनमैं कोई चेतना सुभाव, जड़ जाति लिए एक सगरे निवाह है। तिनहीं मैं आप-पर, पर का समान ज्ञान, सोई जीव नाम ताकौं जानै तेई साह है।।६३ ।। (दोहा) इन्द्रिय काया विविध पद, सगरा जीव-निवास । निहचै ग्यानसरूप है, चेतन विस्व-विलास।।६४ ।। उपर्युक्त काव्यों का भावार्थ यह है कि ह्न निश्चय से, इन्द्रियाँ जीव नहीं है, छह कायें भी जीव नहीं हैं, जीव तो इनमें रहने वाला ज्ञायक स्वभावी आत्मा ही हैं। ___ इसीप्रकार इन्द्रियाँ एवं पृथ्वीकाय आदि के भेद भी निश्चय से जीव नहीं है ह्र ये सब तो जीव के एकक्षेत्र अवगाह-व्यवहारनय से इन्हें जीव संज्ञा है, परन्तु निश्चय से इन में चेतना नहीं है। ये सब जड़ हैं। ___ इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेव श्रीकानजी स्वामी ने कहा है कि ह्र “जीव को स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियाँ व्यवहार से कहीं जाती हैं, जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३) ३८३ वस्तुतः इन्द्रियाँ जीव का स्वरूप नहीं हैं तथा पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय रूप जीव की पर्यायों को अशुद्ध निश्चयनय से जीव कहा गया है; किन्तु पर्याय की योग्यता तो अंश है, वह जीव का त्रिकाली स्वरूप नहीं है, इसलिए निश्चय से वे भी जीव का स्वरूप नहीं है। एक रूप चैतन्य भाव ही जीव है। तात्पर्य यह है कि ह्र जीव के एकेन्द्रिय आदि भेद व्यवहारनय की अपेक्षा से शरीर के सम्बन्ध से कहे जाते हैं। निश्चयनय से विचार किया जाय तो स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ तथा पृथ्वीकाय आदि चैतन्य जीव से जुदे हैं। इन्द्रियाँ तथा शरीर जीव का स्वरूप नहीं है। एकसमय की पर्याय अशुद्ध निश्चयनय से जीव की कही हैं; परन्तु वे जीव की जीव का वास्तविक स्वरूप नहीं है। त्रिकाली ज्ञाता द्रव्य जीव का वास्तविक स्वरूप है।" इसप्रकार उक्त कथन में जीव के स्वरूप की पहचान कराई है। अकेला शुद्ध चैतन्यभाव ही जीव है, अन्य एकेन्द्रिय आदि, पृथ्वी आदि शरीर कुछ भी अपूर्ण अवस्थायें या जीव को सयोगी अवस्थायें जीव नहीं है। ऐसा कहा है। यहाँ कहा है कि ह्न ऐसे जीव के यथार्थ स्वरूप के बिना अज्ञानी जीव विकारी भाव करके पुनः पुनः देह धारण करके पाँच इन्द्रियों के विषयों में भोगता है, अपने अमृत स्वरूप असीम सुखद आत्मा के स्वभाव का आनन्द नहीं ले पाता। (200) १. श्रीगुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९२, गाथा १२१, दि. १-५-५२, पृष्ठ-१५४५
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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