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________________ गाथा - १२० विगत गाथा में यह बताया गया है कि देवत्वादि चारों गतियों की प्राप्ति में गतिनामकर्म एवं आयुकर्म निमित्त होते हैं। ये चारों गतियाँ आत्मा का स्वभाव नहीं हैं। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि तू ये जीव निकाय देह सहित हैं। इनके दो भेद हैं। १. भव्य तथा २. अभव्य । मूल गाथा इसप्रकार है ह्र एदे जीवणिकाया देहप्पविचारमस्सिदा भणिदा। देहविहूणा सिद्धा भव्वा संसारिणो अभव्वा य।।१२०।। (हरिगीत) पूर्वोक्ति जीव निकाय देहाश्रित कहे जिनदेव ने। देह विरहित सिद्ध हैं संसारी भव्य-अभव्य हैं ।।१२०।। इस गाथा में कहा है कि ह्र ये समस्त संसारी जीव देह सहित हैं। सिद्ध भगवान देह रहित हैं। संसारी जीव जीवों की अपेक्षा एक जैसे होने पर भी वे भव्य व अभव्य के भेद से दो प्रकार के हैं। जिनमें शुद्धस्वरूप की प्राप्ति की शक्ति का सद्भाव है, वे भव्य हैं और जिनमें शुद्धस्वरूप की प्राप्ति का असद्भाव है, वे अभव्य हैं। ___ आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि - "यह पूर्वोक्त गाथा में कहे गये जीव विस्तार की उप संहार है। जिनके प्रकार यानि भेद-प्रभेद पहले कहे गये हैं, वे समस्त संसारी जीव देह में वर्तनेवाले हैं, देह सहित हैं। देह में न वर्तने वाले अर्थात् देह रहित सिद्ध भगवन्त हैं - जो कि शुद्ध जीव हैं। जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३) ३७९ देह में वर्तने की अपेक्षा से संसारी जीवों का एक प्रकार होने पर भी वे भव्य व अभव्य के भेद से दो प्रकार के हैं। 'पाच्य' और अपाच्याग की भाँति जिनमें शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि की शक्ति का सद्भाव हो उन्हें भव्य कहते हैं तथा जिनमें शुद्धस्वरूप की उपलब्धि की शक्ति असद्भाव है, उन्हें अभव्य कहते हैं। कवि हीराचन्दजी उक्त कथन को काव्य में कहते हैं। (दोहा) एई जीव निकाय सब, देह विषय आधीन । देह विहीना सिद्ध हैं, भव्याभव्य मलीन।।५८ ।। (सवैया इकतीसा ) जेते जगवासी जीव तेते देहधारी सबै, देह के अधारी सिद्ध सिद्धगति विषै हैं। शुद्ध होने जोग भव्य, होने जोग नाहिं सुद्ध, ते अभव्य जगमाहिं दौनौ रासि दिखे हैं। जैसें मूग पकै एक, एक पके नाहिं किहू, वस्तु का सुभाव ऐसा साहजीक लिखे हैं।। जाकै भेद सत्ता जग्या जथारूप जैसा. सोई सुद्ध पथ पावै जिनराज सिखै हैं। ५९।। (दोहा) सिद्धरूप जिनकै हियै, सिद्ध भयौ पर त्यागि। तेई सिद्ध सुभाव तैं, सिद्ध भये जग जागि।।६० ।। कवि उक्त पद्यों में कहते हैं कि ह्र चारों गति के संसारी जीव समूह देह और विषयों आधीन हैं। तथा सिद्ध जीव देह रहित हैं। संसारी जीवों में भव्य और अभव्य ह्र ऐसे दो प्रकार होते हैं। जितने संसारी जीव हैं वे सब (198)
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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