SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (दोहा) चतु निकाई देव हैं, करम भोग नर-भेद । तिर्यग बहुत प्रकार हैं, नारक भूगत छेद ।। ५० ।। ( सवैया इकतीसा ) देवगति नाम देव - आयुकर्म उदै सैती, देवरूप धारी जीव, चतुर निकाय है । नरगति नाम नर-आयु उदै भये जीव, करम व भोगभूमि विषै उपजाय है ।। पशुगति - पशु आयु उदैपाय मडी आदि, पाँचौं इन्द्री विषै भेद बहुधा कहाय है। नरक गति नरक आयु उदै सात भूमि, डौले जैन बिना कहौ कैसे कै रहाय है ।। ५१ ।। ( दोहा ) जिन सिवगति की गति लखी, तिनगति लखी समस्त । भवगति गति मैं जै परै, ते भव-गत सुख अस्त ॥ ५३ ॥ कवि कहते हैं कि ह्न देव चार निकाय वाले हैं। मनुष्यों में एवं तिर्यंञ्चों में कर्म भूमिज और भोगभूमिज ह्न ऐसे दो भेद हैं। तथा नारकी जीव पृथ्वी नीचे सात नरकों में रहते हैं। अंत के दोहे में कवि ने कहा है कि ह्न जिन्होंने मोक्षमार्ग देख लिया है, उन्होंने अन्य गतियों ज्ञाता रूप में जाना है तथा जो मिथ्यादृष्टि संसार की गतियों में पड़ गये, उनके सच्चा सुख अस्त हो गया है। इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न व्यवहार से कहें तो पूर्व काल में बाँधे गये गतिनामकर्म तथा आयुकर्म १. कर्मभूमि - भोगभूमि (197) जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३ ) ३७७ पूरे होने से वे अपना रस देकर खिर जाते हैं तथा निश्चय से कहें तो वे जीव अपनी कषाय गर्भित योगों की प्रवृत्ति रूप लेश्या के प्रभाव से अन्यगति तथा आयु को प्राप्त करते हैं। उदाहरण देते हुए गुरुदेव कहते हैं कि 'जिस तरह यदि कागज चिपकाना हो तो गोंद चाहिए उसी प्रकार आत्मा को अन्य गति में जाने के लिए क्रोध- मान-माया-लोभ के परिणामों के साथ योगों की प्रवृत्ति गोंद के समान है। वस्तुतः तो जीव अपने परिणामों के कारण दूसरी गति धारण करता है। 'कर्म के कारण जाता है' ह्र यह कहना तो उपचार मात्र है। तात्पर्य यह है कि जीवों की गति का एवं आयु का बंध क्रोधादि परिणाम एवं योग की प्रवृत्ति से पड़ता है। जैसे भाव करे वैसा भव मिलता है। पूर्व की आयु खिरती है तथा नवीन आयु बाँधता है । इस प्रकार जैनधर्म के बिना संसार चलता रहता है। जिन जीवों ने मोक्षमार्ग देख लिया है, उन्हें मुक्ति मिल जाती है और जो संसार की गति में पड़ गये, उनको सच्चा सुख नहीं मिलता।” सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि ह्न जीव कषायानुरंजित लेश्या के वशीभूत होकर अपने आत्मा को न जानने से संसार सागर में गोते खाता है । अतः स्वयं के स्वरूप को जानना चाहिए। १. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १९०, पृष्ठ १५३५
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy