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________________ गाथा - १९२ विगत गाथा में स्थान शील होने की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक को स्थावर तथा शेष दो को गतिशील होने से त्रस कहा है। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्न ये पाँचों ही मन रहित एकेन्द्रिय हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र एदे जीवणिकाया पंचविधा पुढविकायियादीया । मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया । । ११२ ।। (हरिगीत) पृथ्वी कायिक आदि जीव निकाय पाँच प्रकार के । सभी मन परिणाम विरहित जीव एकेन्द्रिय कहे ॥ ११२ ॥ इन पृथ्वीकाय आदि पाँच प्रकार के जीवनिकायों को मन परिणाम रहित एकेन्द्रिय जीव कहा है। टीका में आचार्यश्री अमृतचन्द्रदेव कहते हैं कि पृथ्वीकाय आदि जीवों के एकेन्द्रिय के योग्य ज्ञान के आवरण के क्षयोपशम के कारण तथा शेष चार भावेन्द्रियों के तथा मन के आवरण का उदय होने से वे मन रहित एकेन्द्रिय हैं। अब इसी गाथा के भाव को कवि हीरानन्दजी पद्य में कहते हैं ह्र (दोहा) इतने पृथिवी आदि हैं, काय पाँच परकार । मन परिणाम रहित सदा एकेन्द्रिय अनिवार ।। ३० ।। ( सवैया इकतीसा ) एई पृथ्वी कायकादि भेद थावर अनादि, पाँच परकार सारे जग अनिवार हैं। (188) जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३ ) सूच्छिम और बादर दोड़-दोई विधि सेती, एक-एक काय विषै नाना विस्तार है ।। फास एकेन्द्रिय- आवरण के विनास भये, जथाशक्ति जानै एकदेह का विचार है । सेष इन्द्री - मन- आवरण उदेरूप लसै, ऐसा भेद जानै बिना कैसे निसतार है । । ३१ ॥ ( दोहा ) ३५९ थावर काया फरि सदा, सकल लोक भरपूर । जथा भेद ते नहिं लखे, जे आतम अतिकूर ।। ३२ ।। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ह्न आत्मा की उपेक्षा करने वाले और विषयकषायों में रमनेवाले अज्ञानी जीव आर्त-रौद्र ध्यान करके मृत्यु को प्राप्त होकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व वनस्पतिकाय में जन्म लेते हैं। ये पाँचों प्रकार के जीव मन और एकेन्द्रिय के सिवाय चार इन्द्रियों के बिना मात्र एक इन्द्रिय की पर्याय में ही अनन्तकाल बिताते हैं । अतः हमें आत्मा की उपेक्षा नहीं करना चाहिए । इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न पृथ्वी आदि पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीव मन रहित हैं। वे मन रहित एक इन्द्रिय इसकारण हुए कि उन्होंने पूर्व जन्मों में आत्मा को नहीं जाना, आत्मा की जानकारी करने की उपेक्षा की। जब यह जीव पंचेन्द्रिय मनुष्य था तब केवलज्ञान पा सके ह्र ऐसी योग्यता थी, परन्तु इसने आत्मा का यथार्थ ज्ञान न करके आर्तध्यान- रौद्रध्यान करके विकार की भावना की थी, राग-द्वेष किए इस कारण एकेन्द्रिय हुआ है। गुरुदेव श्री करुणा करके कहते हैं कि ह्न इस शरीर की स्थिति स्वस्थ अवस्था में २५/ ५० वर्ष की ही होती है, परन्तु उस समय भी शुद्ध आत्मा की पहचान न करके ऐसी औपाधिक विकारी भावों में उलझा रहता है जिनका कभी अंत ही नहीं आता। जिस शरीर से तेरा परिचय है
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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