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________________ गाथा - १९९ विगत गाथा में संसारी जीवों के पृथ्वीकायिक आदि पाँचों भेदों का कथन किया। अब प्रस्तुत गाथा में एकेन्दिय पाँचों भेदों में तीन को स्थावर संज्ञा एवं दो को त्रस संज्ञा कहने का प्रयोजन बताया है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र ति स्थावरतजोगा अणिलाणलकाइया य तेसु तसा । मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया । । १११ । । (हरिगीत) उनमें त्रय स्थावर तनु त्रस जीव अग्नि वायु युत । ये सभी मन से रहित हैं अर एक स्पर्शन सहित हैं ।। १११ ॥ उन पाँचों स्थावर कायों में तीन (पृथ्वीकायिक अपकायिक और वनस्पतिकायिक) जीव स्थानशील होने के कारण स्थावर संयोग वाले हैं तथा अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों की चलन क्रिया देखकर व्यवहार से इन्हें कहा गया है। निश्चय से तो ये भी स्थावर, नामकर्म की आधीनता के कारण स्थावर ही हैं। ये पाँचों मन रहित एकेन्द्रिय जीव हैं। इस गाथा पर अमृतचन्द की टीका नहीं हैं। इसी बात को कवि हीरानन्दजी पद्य में कहते हैं (दोहा) तीनों थावर काय हैं, आग वायु त्रस रूप । मन परिणाम-रहित सदा, एकेन्द्रिय अरूप ।। २७ ।। (सवैया इकतीसा ) पृथ्वी तोय हरीकाय तीनों नामकर्म लसैं, काय के संजोग सेती थावर कहावै है । आग वायु थावर है यद्यपि तथापि दौनौ. चलन के जोग सेती त्रसता लहावे है ।। मनसा बिना ही एक इन्द्रिय सरूप सवै, थावर नामकर्म कै उदय मैं रहावे है। (187) जीव पदार्थ (गाथा १०९ से १२३) ता है थावर काय निहचे स्वरूप पाच, जिनराज वानी विषै जहाँ तहाँ गावे हैं ।। २८ ।। कवि का कहना है कि ह्न पृथ्वी-पानी एवं हरितकाय ह्न तीनों ही स्थानशील होने से तथा स्थावर नामकर्म के उदय के कारण तो स्थावर ही हैं, किन्तु चलन स्वभावी होने के कारण व्यवहार से त्रस कहे गये हैं, निश्चय से स्थावर कर्मोदय के कारण पाँचों ही स्थावर काय हैं। ३५७ इस गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं। कि ह्न “आत्मा स्वभाव से तो अनन्तगुणों का पिण्ड है। जो उस पूर्ण पवित्र आत्मा की भावना नहीं भाता वह एकेन्द्रियपने को प्राप्त होता है। अपने स्वभाव को भूलकर पूर्व में जैसे शुभाशुभ भाव किए, उनके फल में नीच - ऊँच गति एवं रोग व निरोगता होती है। यह जीव अपने स्वभाव की पहचान से चूक जाता है, इसकारण हीनदशा होते-होते एकेन्द्रिय में चला जाता है। इसप्रकार यह एकेन्द्रिय पर्याय में अधिकतम ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम तक रहता है। इसीप्रकार वादर निगोद अग्नि वगैरह में अधिकतम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर तक रहता है। अपने आत्मा का तीव्र विरोध रखे तो एकेन्द्रियपने की योग्यता से वहीं जन्म-मरण किया करता है। वायुकाय वाला पृथ्वी हो जाता। इसीप्रकार एकेन्द्रिय में ही बदलबदल कर जन्म-मरण करते हुये असंख्य पुद्गलपरावर्तन तक वहाँ बिताता है। इसलिए कहते हैं कि ह्न राग में रुचि तथा निमित्तों की पराधीनता की भावना करने योग्य नहीं है। यह बात सर्वज्ञ के सिवाय अन्यत्र कहीं नहीं है। अतः सर्वज्ञ के अवलम्बन से निजस्वभाव का निश्चय करके उसमें जमना रमना ही धर्म है। इसे कभी भूलना नहीं चाहिए।" इसप्रकार इस गाथा में पाँचों स्थावर काय होने पर आग व वायु को क्षेत्र से क्षेत्रांतर चलने की अपेक्षा त्रस कहा गया है। गुरुदेवश्री ने तो वैराग्य प्रेरक बात कहकर स्थावर काय में अनन्त काल तक न रहना पड़े ह्र ऐसी प्रेरणा दी है। १. श्रीमद् सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १८८ दि. २८-४-५२, पृष्ठ- १५८१
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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