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________________ ३५२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन संसारी सदेह नाना मुक्त कौं अदेह जान, असंख्याति परदेस एक-एक न्यारे तैं। किए न कराये काहू गुन के उमाहू सदा, वस्तु रूप बीज पुंज जग मैं विचारतें।।२०।। कवि हीरानन्दजी कहते हैं कि - यद्यपि चेतना स्वभाव की अपेक्षा संसारी व सिद्ध समान है, किन्तु संसार अवस्था में जीव अशुद्ध हैं और कर्मों के नाश होने से सिद्ध शुद्ध है। संसारी देह सहित हैं और मुक्त देह रहित हैं। संसारी एवं सिद्धों किसी अन्य ने न स्वयं किया है और न किसी से कराया है। कर्म आदि तो निमित्त मात्र हैं। जीव स्वयं अपनी मूल स्वभाव की भूल से दुःखी-संसारी है और भूल सुधार कर सुखी होता है। उक्त गाथा तथा टीका के स्पष्टीकरण में गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “संसारी जीव अशुद्ध हैं तथा मोक्ष अवस्था को प्राप्त जीव शुद्ध हैं, सिद्ध हैं। निगोद से लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त जीव अशुद्ध है, संसारी है। जब संसार छूटे तब मुक्त होता है। किसी अन्य कर्मादि के कारण संसार नहीं है। ये कर्मादि तो निमित्त हैं। स्त्री, पुत्रादि पर संयोगों के कारण संसार नहीं हैं, बल्कि जब तक जीवों में स्वयं में हुए विकार के कारण या अपूर्णता के कारण कर्मों का संयोग है, तब तक संसार है। कर्मों का संयोग भी जीव के स्वयं के कारण है, पर के एवं कर्मों के कारण नहीं। निगोद में हो या चौदहवें गुण स्थान में हों तो भी अभी अपूर्णता है, वह अपनी तत् समय की योग्यता से है, कर्मों के कारण नहीं। जब तक स्वभाव का ज्ञान नहीं होता, तब तक धर्मदशा प्रगट नहीं होती। इसलिए सिद्धदशा को प्राप्त करने के लिए पर्यायबुद्धि छोड़कर स्वभाव का अवलम्बन लेना चाहिए।" इसप्रकार इस गाथा में संसारी व सिद्ध भेद करके अन्य स्वरूप समझाया है। गाथा- ११० विगत गाथा में जीव के संसारी और सिद्ध भेदों का कथन किया। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि ह्न यह संसारी जीवों के भेदों में से पृथ्वीकायिक आदि पाँच भेदों का कथन है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र पुढवीय उदगमगणीवाउवणफ्फदिजीवसंसिदा काया। देंति खलु मोहबहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं।।११०।। (हरिगीत) भू जल अनल वायु वनस्पति काय जीव सहित कहे। बहु संख्य पर यति मोहयुत स्पर्श ही देती रहें।।११०|| पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ह्र ये कायें जीव सहित हैं। अवान्तर गतियों की अपेक्षा से उनकी भारी संख्या होने पर भी वे सभी उनमें रहनेवाले जीवों को वास्तव में अत्यन्त मोह से संयुक्त स्पर्श देती हैं अर्थात् स्पर्शज्ञान में निमित्त होती हैं। आचार्य श्री अमृतचन्द ने संसारी जीवों के भेदों में से पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों के पाँच भेदों का कथन किया है। __पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ह ऐसे पुद्गल परिणाम बंध वशात् जीव सहित हैं। अवान्तर जातियों की अपेक्षा से उनकी भारी संख्या होने पर भी वे सभी पुद्गलपरिणाम स्पर्शेन्द्रियावरण के क्षयोपशम वाले जीवों को बहिरंग स्पर्शन इन्द्रिय की रचनाभूत वर्ततै हुए कर्मफल चेतना के कारण मोह सहित स्पर्श का अनुभव कराते हैं। इसी बात को कवि हीरानन्दजी अपनी पद्य की भाषा में कहते हैं ह्र (दोहा) पृथिवी-उदक-अगनि-पवन, हरित जीव जुत काय। मोह बहुल इन्द्रिय परस, बहुविध जीव निकाय।।२३।। (185) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १८८, दिनांक २८-४-५२, गाथा १०९, पृष्ठ १५०८
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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