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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन इन्हीं दो भेदों का स्पष्टीकरण गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के कथन में आ गया है। अतः यहाँ उस कथन को गौण किया है। ३५० इस गाथा में गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न 'यदि जीव नवतत्त्वों को यथार्थ जाने तो चैतन्य स्वरूप आत्मा में एकाग्र होकर मुक्ति प्राप्त करता है। आत्मा चैतन्य स्वभावी है, जानना देखना उसका धर्म है । जीव (आत्मा) चेतन पदार्थ है । देह से भिन्न केवल ज्ञाता-दृष्टा जीवतत्त्व है। चेतना रहित जड़ पदार्थ अजीव हैं । जो दया, दानादिभावपुण्य हैं, वे आत्मा की पर्याय में होते हैं। उनके निमित्त से जो रजकण बंधते हैं, उन्हें द्रव्यपुण्य कहते हैं। पुण्य-पाप के परिणामों को आस्रव कहते हैं। शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा अजीव तथा पुण्य-पाप की रुचि छोड़कर जो स्वभाव का भान करता है, वह भाव संवर है। उनके निमित्त से आते हुए कर्मों का रुक जाना द्रव्य संवर है। आत्मा के आश्रय से शुद्धि में वृद्धि होना भावनिर्जरा है तथा भाव निर्जरा के निमित्त से पूर्वोपार्जित कर्मों का एकदेश क्षय होना द्रव्यनिर्जरा है। जीव के मोह-राग-द्वेष रूप परिणाम, दयादानादि के परिणाम भाव बंध है। भावबंध का निमित्त पाकर वर्गणाओं का जीव के प्रदेशों के साथ परस्पर एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होना बंध है। जीव को परिपूर्ण आत्मा स्वभाव की प्राप्ति मोक्ष है। उसमें आत्मा की दशा भाव मोक्ष तथा उनके निमित्त से कर्मों का सर्वथा संबंध छूटना द्रव्यमोक्ष है । यहाँ जीव के भावों के साथ कर्मों की पर्याय का मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहा है। वस्तुतः दोनों स्वतंत्र हैं । " इसप्रकार इस गाथा में सात तत्त्व व पुण्य-पाप मिलाकर नवपदार्थों का कथन है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १८८, दि. ५-५-५२, पृष्ठ- १४९९ (184) गाथा - १०९ विगत गाथा में नव पदार्थों का स्पष्टीकरण हुआ। अब प्रस्तुत गाथा में जीव के संसारी व सिद्ध ह्र ऐसे दो भेद करके उनका स्वरूप कहा जा रहा है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा । उवओगलक्खणा वि य देहादेहप्पवीचारा । । १०९ ।। (हरिगीत) संसारी अर सिद्धात्मा उपयोग लक्षण द्विविध हैं। जग जीव वर्ते देह में अर सिद्ध देहातीत हैं ।। १०९ ।। जीव दो प्रकार के हैं। संसारी और सिद्ध । वे चेतनात्मक और उपयोग लक्षणवाले हैं। संसारी जीव देह में वर्तनेवाले (देह सहित ) तथा सिद्ध जीव देह रहित हैं। आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “जीव दो प्रकार के हैं ह्न “एक संसारी अर्थात् अशुद्ध और दूसरे सिद्ध अर्थात् शुद्ध । वे दोनों ह्र वास्तव में चेतना स्वभाववाले हैं और चेतनापरिणाम स्वरूप उपयोग द्वारा पहिचानने में आते हैं। उनमें संसारी जीव देह सहित एवं सिद्ध जीव देहातीत हैं, देह रहित हैं। कवि हीरानन्दजी पद्य में कहते हैं ( सवैया इकतीसा ) संसारी अवस्था माहिं जीव है असुद्ध रूप, सुद्धरूप मुक्त कहे कर्मपुंज जार तैं । चेतना सुभाव दौनौं सबतैं विसेष होनौ, चेतना के परिनाम उपयोग धारे तैं ।।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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