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________________ ३१८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (सवैया इकतीसा) नहिं है आकास गति-थान का निमित्त यातें, लोकालोक सीमा नीकी सदाकाल बनी है। जौ तौ गति-थान-हेतु कहिए आकास दर्व, तौ तौ है विरोध बड़ा सीमा सारी भनी है।। नभ तो अपार सारै गति-थान को निवारै, कौन अलोक सीमा लोकरूढ़ि हानि है। छहौं दर्व पावै जहाँ-तहाँ लोक सीमा नाहिं, भेदज्ञान जाहिं सवै सांची बात मनी है।।४१०।। कवि का कहना है कि यदि आकाश द्रव्य गमन का निमित्त हो तो अलोकाकाश की हानि होगी और लोक का अन्त नहीं ठहरेगा अर्थात् लोक अनंत मानना पड़ेगा, जो असंभव है। इसलिए आकाश गति, स्थिति का निमित्त नहीं ठहरता । तथा इसी कारण लोकालोक की सीमा बनती है। इस गाथा के व्याख्यान में गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र यदि ऐसा माना जावे कि धर्मद्रव्य तथा अधर्म की क्या जरूरत है, आकाश द्रव्य से ही जीवादि द्रव्यों की गति-स्थिति हो जायेगी? उनसे कहते हैं कि ह्र ऐसा मानने पर अलोकाकाश का नाश होगा तथा लोकाकाश की वृद्धि का प्रसंग प्राप्त होगा।" तात्पर्य यह है कि ह्र आकाश द्रव्य जीव व पुद्गलों की गति में निमित्त नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसा होने पर जीव व पुद्गल अलोक में चले जायेंगे। इससे लोक व अलोक की मर्यादा ही भंग हो जायेगी, जोकि अनादि से हैं। तथा जब आकाश द्रव्य में गति-स्थिति में निमित्त होने का गुण ही नहीं है तो निमित्त बनेगा ही कैसे? जबकि निमित्त होने का गुण लोकाकाश में स्थित धर्मद्रव्य एवं अधर्म द्रव्य में है। इसप्रकार लोक में रहने वाले छहों द्रव्य अलोकाकाश में नहीं जा सकते। गाथा- ९५ विगत गाथा में यह कहा है कि ह्र अलोकाकाश में धर्मद्रव्य व अधर्म नहीं हैं। इसकारण सिद्धजीव लोकाग्र में ही ठहरते हैं। अब प्रस्तुत गाथा में षद्रव्य वर्णन के निष्कर्ष के रूप में आ. कुन्दकुन्द स्वयं कहते हैं कि ह्रगति और स्थिति के कारण धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य हैं, आकाश नहीं है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र तम्हा धम्माधम्मा गमणट्टिदिकारणाणि णागासं। इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सुणंताणं ।।१५।। (हरिगीत) नभ होय यदि गति हेतुअर थिति हेतुपुद्गल जीव को। तो हानि होय अलोक की अर लोक अन्त नहीं बने||१५|| आचार्य अमृतचन्द्र ने भी इस गाथा की टीका में विशेष कुछ नहीं कहा । मात्र यह कहा कि आकाश द्रव्य में गति-स्थिति हेतुत्व संभव ही नहीं है; क्योंकि उसमें ऐसा कोई गुण ही नहीं है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्न (दोहा) तातें धर्म-अधर्म हैं गति-थिति कारनवन्त । नहिं आकास जिनकथन यों ग्यानी लखै लसंत ।।४१५।। (सवैया इकतीसा) धर्मदर्ववियु नीका गति-हेतु बन्या ठीका, सबतें विशेष साधै धर्म माहिं गनिए। ऐसे ही अधर्म माहिं थान सहकारी गुन, सबसौं निरारा करै लोक माहिं भनिए ।। (168) १. श्रीसद्गुरु प्रसाद नं. १७६, दि. १६-४-५२, पृष्ठ-१४०६
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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