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________________ ३१६ पञ्चास्तिकाय परिशीलन सदाकाल रहै तामैं और ठौर नाहीं भामै, निर्विभाग सुद्ध एक जोति परगासी है।। तातें ऐसा निहचै सौं जानिए प्रसिद्धनभ, चालै राखै नाहिं काहू अवकास रासी है। गतिथान कौं निमित्त धर्माधर्म दौनौं लसे, वस्तु सीमा जैसी तैसी सांची दृष्टि भासी है।।४१०।। जो सिद्धालय में सिद्ध है वे अन्यत्र कहीं नहीं जाते, इसलिए यह निश्चय है कि ह्र गति व स्थिति आकाश का गुण नहीं है। गति-स्थिति में धर्म व अधर्मद्रव्य निमित्त होते हैं जो अलोकाकाश में नहीं है। अतः सिद्ध लोकान्त में ही रहते हैं। इस गाथा के स्पष्टीकरण में अपने व्याख्यान में गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न इसगाथा में कहा गया है कि आकाश से धर्म-अधर्म भिन्न हैं, इसलिए वहाँ तक क्षेत्रान्तर होने में तथा ठहरने में निमित्तरूप होने का गुण आकाश द्रव्य में नहीं है। आकाश के गुण से धर्म-अधर्म द्रव्य के गुण जुदे हैं। यहाँ शिष्य पूछता है कि ह्न आकाश द्रव्य ही चेतन व अचेतन पुद्गल के गमन में निमित्त हों तो क्या बाधा है? उत्तर में गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “यदि सिद्ध भगवान का अलोकाकाश में हो तथा आकाश में गति-स्थिति में निमित्त बनने का गुण तो यह संभव है। आकाश धर्म-अधर्म में निमित्त बनने का गुण ही नहीं है अतः यह बात संभव कैसे हो सकती है। धर्म-अधर्म द्रव्य भी आलोक में जाने का गुण नहीं है। अतः लोक के द्रव्य लोक में ही हैं। यह सिद्ध हुआ। धर्म-अधर्म द्रव्य से लोक-अलोक का विभाग पड़ता है। धर्मअधर्म द्रव्यों को न माने तो लोक-अलोक की सिद्धि नहीं होती।" लोक-अलोक को व धर्म-अधर्म द्रव्यों को न जाने तो ज्ञान मिथ्या ठहरता है। गाथा- ९४ विगत गाथा में यह कहा है कि ह्न लोक के द्रव्य लोक में रहते हैं। उनका अलोकाकाश में जाने का स्वभाव ही नहीं तथा निमित्तरूप धर्मास्तिकाय अभाव भी है। अब प्रस्तुत गाथा में आकाश में गति-स्थिति न होने का हेतु बताया है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं। पसजदि अलोगहाणी, लोगस्स य अन्तपरिवुड्ढी।।१४।। (हरिगीत) नभ होय यदि गति हेतु अर थिति हेतुपुद्गल जीव को। तो हानि होय अलोक की अर लोक अन्त नहीं बने||९४|| यदि आकाश जीव-पुद्गलों को गमन में हेतु हों और स्थिति में हेतु हो तो अलोक की हानि का और लोक अन्त की वृद्धि का प्रसंग प्राप्त होगा। टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि ह्र आकाश गति-स्थिति का हेतु नहीं है; क्योंकि लोक और अलोक की सीमा की व्यवस्था इसी प्रकार बन सकती है। ___ यदि आकाश को ही गति-स्थिति का निमित्त माना जाय तो आकाश का सद्भाव सर्वत्र होने से जीव व पुद्गलों की कोई सीमा न रहने से प्रतिक्षण अलोक की हानि होगी और लोक अन्त भी नहीं बन पायेगा। इसलिए आकाश में गति-स्थिति का हेतुपना सिद्ध नहीं होता। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं कि ह्र (दोहा) गमनथान का हेतु जो, होइ आकाश महंत । तो अलोक की हानि है, लोक बढ़े बिन अंत ।।४१२।। (167) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७६, दिनांक १६-४-५२, पृष्ठ-१४०५
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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