SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० पञ्चास्तिकाय परिशीलन सुद्ध परदेसस खेत सबका सहेत गुन, परजैसमेत सदा सुद्धता प्रकास है । हलन चलन वर्ती क्रिया जामें कवै नाहिं, सुद्ध अवकास क्रिया जामैं सो अकास है । ।४०१ ।। ( दोहा ) पुग्गलकाया जीव फुनि, धरमाधरम अनन्य । तिनतैं अन्य अनन्य है, नभ अनंत अनगन्य ।। ४०३ ।। लोक में जहाँ-जहाँ जीवों व पुद्गलों का समूह है, धर्मद्रव्य अधर्म द्रव्य तथा आकाशद्रव्य एवं कालद्रव्य का निवास है, उसे लोकाकाश जानो। ये सभी द्रव्य अपने-अपने गुण पर्यायों सहित रहते हैं, आकाश में स्वयं हलन चलन क्रिया नहीं है, किन्तु कितने भाग में छह द्रव्य है वह लोकाकाश, शेष भाग अलोकाकाश है। इसी भाव को विशेष स्पष्टीकरण के साथ गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र आकास अनन्त प्रदेशी हैं, इसलिए कायवान होने से यह अस्तिकाय है । यद्यपि आकाश को यह खबर नहीं है कि मैं अनन्त जीवों तथा अनन्तानंत पुद्गल आदि छहों द्रव्यों को अवकास देता हूँ; क्योंकि वह जड़ है, फिर भी अपनी स्वभावगत योग्यता से वह सब द्रव्यों को अवकास देता है। यदि समस्त लोक सूक्ष्म परिणमन करे तो आकास अपने एक प्रदेश में अवकास दे सकता है ह्न ऐसी योग्यता आकास द्रव्य में है। " इसप्रकार इस गाथा में द्रव्य का सामान्य वर्णन हुआ। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७६, दिनांक १५-४-५२, पृष्ठ- १३९९ (164) गाथा - ९९ विगत गाथा में आकाश द्रव्य का स्वरूप कहा। अब प्रस्तुत गाथा में यह बताते हैं कि अलोकाकाश छहों द्रव्य रूप लोक के बाहर भी है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदो णण्णा । तत्ते अणण्णमण्णं आयासं अन्तवदिरित्तं । । ९१ । । (हरिगीत) जीव पुद्गल काय धर्म अधर्म लोक अनन्य हैं। अन्तरहित आकाश इनसे अनन्य भी अर अन्य भी ।। ९९ ।। जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म तथा काल लोक से अनन्य हैं तथा अन्तरहित आकाश लोक से अनन्य भी तथा अन्य भी है। टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि ह्न यह लोक के बाहर जो अनन्त आकाश है, उसकी सूचना है। वे जीवादि द्रव्य मर्यादित होने के कारण लोक से अनन्य ही हैं; और आकाश अनन्त होने के कारण लोक से अनन्य भी है और अन्य भी । इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र ( सवैया इकतीसा ) जीव है असंख्य परदेसी एक लोकमान, पुद्गल अनन्त सो भी लोक परिमित है। धर्माधर्म-दोनों असंख्य परदेसी हैं, औ असंख्य अनु-काल लोक माहिं थित हैं ।। तातैं ए दरब न्यारे लोक माहिं परे सारे, इन अनन्य लोक किया नाहीं नित हैं। तातैं परे हैं अनन्त एक नभ सुद्धवंत, अन्यभाव तामैं वसै ज्ञानी कै उदित हैं । । ४०४ ॥
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy