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________________ ३०८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन गति कौं करैया सदाकाल गति ही कौं करै, तिथि का करैया थिति ऐसा तौ न बोध है।। ताते चले और रहे जीव अनुनाना ठौर, आफैं उपादान सैती निहचै कौं सोध है। बाहिर निमित्त धर्मा-धर्म उदासीरूप, ऐसौं भेद वानी ही तैं ग्यानी के प्रबोध हैं।।३९७ ।। प्रस्तुत छन्दों में यह कहा है कि ह्र धर्म व अधर्म दोनों जीवों और पुद्गलों को चलाते व ठहराते नहीं है, बल्कि जब जीव व पुद्गल अपनी योग्यता से गमन करते व ठहरते हैं तो उक्त दोनों द्रव्य मात्र उदासीन निमित्त होते हैं। इसी विषय को स्पष्ट करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी आचार्य जयसेन के तर्क के आधार पर कहते हैं कि ह्र धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य गतिस्थिति में मुख्य कारण नहीं हैं। जीव एवं पुद्गल पदार्थ अपने उपादान कारण से चलते एवं ठहरते हैं। कोई अन्य उन्हें प्रेरणा करके चलाता व ठहराता नहीं है। इसलिये यह तय है कि धर्म व अधर्म द्रव्य गति-स्थिति में मुख्य कारण नहीं है। व्यवहारनय से उन्हें उदासीन निमित्त कारण कहा जाता है। सर्वज्ञ के मत के सिवाय यह धर्म-अधर्म की चर्चा अन्यमत में कहीं नहीं है। यहाँ तीन बातों को ध्यान रखना है तू १. आत्मा शक्तिरूप से सर्वज्ञ है। २. जगत में छह द्रव्य परिपूर्ण हैं। ३. अपने ज्ञानस्वभाव की ओर ढलकर अपने में जो ज्ञान प्रकट होता है, उसकी ताकत बहुत है। वह ज्ञान स्व को जानता हुआ छह द्रव्यों को यथार्थ जानता है।" तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पदार्थ अपने कारण गति व स्थितिरूप पर्याय स्वतंत्र रूप से करता है ऐसी अनंतपर्यायों को धारण करनेवाला प्रत्येक गुणस्वतंत्र है तथा उन गुणों को धारण करने वाले द्रव्य भी स्वतंत्र हैं। . गाथा-९० विगत गाथा में बताया गया है जीवों एवं पुद्गलों की गति एवं स्थिति तो उनकी अपनी तत्समय योग्यता रूप उपादान कारण से होती है, धर्म व अधर्म द्रव्य तो निमित्त मात्र होते हैं। अब गाथा ९० से आकाश द्रव्यास्तिकाय का वर्णन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पोग्गलाणं च । जं देदि विवरमखिलं तं लोगे हवदि आगासं।।१०।। (हरिगीत) जीव पुद्गल धरम आदिक लोक में जो द्रव्य हैं। अवकाश देता इन्हें जो आकास नामक द्रव्य वह||९०| लोक में जीवों को और पुद्गलों को तथा शेष समस्त द्रव्यों को जो सम्पूर्ण अवकाश देता हैं, वह आकाश द्रव्य है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी अपनी टीका में कहते हैं कि यह आकाश द्रव्य के स्वरूप का कथन है। षद्रव्यात्मक लोक में शेष सभी द्रव्यों को अर्थात् अनंतानंत जीव, उनसे भी अनन्तगुणे पुद्गल, असंख्य कालाणु और असंख्यप्रदेशी एक धर्म द्रव्य एक अधर्मद्रव्य को जो अवकाश दे, वह आकाश द्रव्य है। ये सब लोक से अनन्य हैं। आकाश द्रव्य अनन्त होने के कारण लोक से अनन्य एवं अन्य है। कवि हीरानन्दजी अपनी काव्य की भाषा में कहते हैं कि ह्र (सवैया इकतीसा) लोकविर्षे जहाँ-जहाँ जीव पुद्गल समूह, धर्माधर्म काल व्योम सबका निवास है। सब ही कौं सदा काल एक खेत विर्षे ढाल, अवकास व्योम देय कारण विलास है।। (163) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७४, दिनांक १४-४-५२, पृष्ठ-१३९०
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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