SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा - ८८ पिछली गाथा में धर्म एवं अधर्मद्रव्य के स्वरूप का कथन है। तथा लोक- अलोक का विभाग उक्त दोनों द्रव्यों के सद्भाव से दर्शाया है। अब प्रस्तुत गाथा में उक्त दोनों द्रव्यों को उदासीन निमित्त रूप कहा गया है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र णय गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स । हवदि गदिस्स य पसरो जीवाणं पोग्गलाणं च ॥ ८८ ॥ (हरिगीत) होती गति जिस द्रव्य की स्थिति भी हो उसी की। वे सभी निज परिणाम से ठहरें या गति क्रिया करें ॥८८॥ धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता और अन्य द्रव्य को भी गमन नहीं कराता; वह तो स्वयं गमन करते हुए जीवों तथा पुद्गलों के गमन में मात्र उदासीन निमित्त होता है। आचार्य अमृतचन्द टीका में कहते हैं कि ह्न धर्म और अधर्मद्रव्य गति और स्थिति के हेतु होने पर भी वे अत्यन्त उदासीन हैं। जिसप्रकार गतिपरिणत पवन ध्वजाओं के गति कर्ता दिखाई देते हैं, वैसा धर्मद्रव्य जीव व पुद्गलों का गति कर्ता / कराता नहीं है। वह धर्म द्रव्य तो वास्तव में निष्क्रिय है तथा जीव व पुद्गलों की गति में अत्यन्त उदासीन निमित्त मात्र हैं, कर्त्ता नहीं । जिसप्रकार पानी मछलियों के गति में उदासीन कारण है, वैसे जीव और पुद्गलों की गति में धर्म द्रव्य उदासीन कारण है। इसीप्रकार धर्म द्रव्य के बारे में जानना चाहिए। इसका उदाहरण यह है कि ह्न जैसे पृथ्वी (161) धर्म द्रव्यास्तिकाय व अधर्म द्रव्यास्तिकाय (गाथा ८३ से ८९) ३०५ अश्व को गतिपूर्वक स्थिति में मात्र आश्रयरूप कारण है, वैसे ही स्वयं गमनपूर्वक स्थिति में जीव व पुद्गलों की उदासीन निमित्तता है। कवि हीरानन्दजी अपनी काव्य की भाषा में कहते हैं (दोहा) आप धरम चलता नहीं औरहिं करहि न चाल । पुद्गल - जीव सुभावकै, गति विस्तरै त्रिकाल ।। ३९१ ।। ( सवैया इकतीसा ) जैसें वायु चलै आप धुजा कौ चलावै और, तातैं धुजा हलने का हेतु वायुकर्त्ता है । तैसें धर्मनिष्क्रिय है कदाकाल चाले नाहिं, सदाजीव- पुद्गल की गति का धर्ता है ।। जैसे तोय मछली कौं आसरा सहाय करै, तैसे जीव अनू लौं धरम दर्व भर्त्ता है ।। आप तौ न चलै कबै पर कै चलाइवै का, बाहिर सहारा सै, राग-द्वेष हर्ता है ।। ३९२ ।। ( दोहा ) यातें दोनों दरव ए, लसै सदा असमान । पुद्गल -जीव क्रिया सधै, यह उपचार बखान । । ३९४ । । कवि उक्त छन्दों में कहते हैं कि ह्न धर्मद्रव्य स्वयं तो निष्क्रिय है, परन्तु यह धर्म द्रव्य जीव व पुद्गलों के गमन में मात्र निमित्त बनता है। जिसप्रकार पानी मछली के चलने में निमित्त होता है, वैसे ही धर्म द्रव्य जीव व पुद्गलों के चलाने में निमित्त होता है। इस गाथा पर प्रवचन करते हुए श्री सत्पुरुष कानजी स्वामी ने कहा है कह्न “धर्म द्रव्य स्वयं हलन चलन नहीं करता तथा अन्य जीवों एवं पुद्गलों को भी प्रेरक बनकर हलन चलन नहीं कराता । धर्म द्रव्य स्वयं
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy