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________________ गाथा- ८७ विगत गाथा में अधर्मद्रव्य का विस्तार से वर्णन किया । अब प्रस्तुत गाथा में भी धर्मद्रव्य एवं अधर्मद्रव्य के अस्तित्व के विषय में कहते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी । दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ।। ८७ ।। (हरिगीत) धरम अर अधरम से ही लोकालोक गति-स्थिति बने । वे उभय भिन्न- अभिन्न भी अर सकल लोक प्रमाण है ॥८७॥ जीव- पुद्गल की गति स्थिति तथा लोक अलोक का विभाग ह्र उक्त दोनों द्रव्यों के सद्भाव से ही होता है और वे दोनों द्रव्य विभक्तअविभक्त तथा लोक प्रमाण कहे गये हैं। आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि इस गाथा में धर्म व अधर्म द्रव्य के सद्भाव की सिद्धि के लिये हेतु दर्शाया है। धर्म-अधर्म द्रव्य विद्यमान हैं, अन्यथा लोक व अलोक का विभाग नहीं बन सकता था। धर्म व अधर्म ह्न दोनों परस्पर पृथक् अस्तित्व से निष्पन्न होने से भिन्न-भिन्न हैं तथा एक क्षेत्रावगाही होने से अभिन्न भी हैं। समस्त लोक में प्रवर्तमान जीवोंपुद्गलों को गति-स्थिति में निष्क्रिय रूप से अनुग्रह करते हैं, इसलिए निमित्त होते हुए लोकप्रमाण हैं। कवि हीरानन्दजी अपनी काव्य की भाषा में कहते ह्र (सवैया इकतीसा ) जीवाजीव छहों दर्व जामैं एकवृत्ति रूप, सोई लोकाकास मान लोक मांहि लोक है। तातैं धर्माधर्म दोनों लोक परमान कहै, जीव पुद्गल जातैं याही माहीं रोक है ।। (160) धर्म द्रव्यास्तिकाय व अधर्म द्रव्यास्तिकाय (गाथा ८३ से ८९) लोक तैं अलोक परंपरा है अनादि ही को, सुद्धाकास एक धर्माधर्म को कहै । तैं जो विभाग किया लोकालोक दौनौं रूप, ३०३ सो तौ धर्माधर्म तैं है जैनी वानी जो कहै ।। ३८३ ।। ( दोहा ) लोकालोक अनादि नभ, एक अखण्ड अपार । धर्म अधर्म अनादि तैं, भया विभेद विचार ।। ३९० ।। सवैया ३८३ एवं दोहा ३९० में कवि ने कहा है कि ह्र जिसमें जीवाजीव आदि छहों द्रव्य एक वृत्तिरूप से रहते हैं। वह लोकाकाश हैं। धर्म व अधर्म द्रव्य - दोनों लोक प्रमाण हैं, इसी कारण जीव पुद्गल भी अपनी स्वभावगत वैसी योग्यता से अनादि-उपादान एवं धर्म-अधर्म द्रव्य के निमित्त से लोकाकाश में ही रहते हैं। यह लोक व अलोक की परम्परा से है। छह द्रव्यों के ऊपर मात्र अकेला अनन्त आकाश है। यहाँ व्याख्यान करते हुए गुरुदेवश्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र “यदि कोई प्रश्न करें कि धर्मद्रव्य अधर्म मानने की क्या जरूरत है? जबकि आकाश द्रव्य ही गति व स्थिति में सहायक हैं। उत्तर :- यह लोक मर्यादावाला है, सीमित है; जहाँ तक छह द्रव्य हैं, वहाँ तक ही लोक है, बाकी खाली स्थान अलोक है। आकाश द्रव्य के ऐसे दो भाग माने बिना यथार्थ वस्तु स्थिति नक्की नहीं होती। जैसे जड़ व चेतन दोनों भिन्न हैं, वैसे ही लोक व अलोक दोनों भिन्न हैं। लोक-अलोक अपने स्वयं के कारण हैं उसमें धर्म अधर्म द्रव्य को निमित्त के रूप में सिद्ध किया है। धर्म-अधर्म द्रव्य हैं तो अवश्य। यदि ये दोनों द्रव्य न हों तो ह्र लोक- अलोक का भेद सिद्ध नहीं होता । जहाँ जीवादिक समस्त पदार्थ हैं, उसे लोक कहते हैं। आकाश का क्षेत्र अनन्त है, उसमें असंख्य योजन तक लोक है, पश्चात् जहाँ अकेला आकाश है, उसे अलोक कहते हैं। • १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १७४, दिनांक १४-४-५२, पृष्ठ- १३८७
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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