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________________ २६४ पञ्चास्तिकाय परिशीलन (दोहा) प्रकृति-थिती अनुभाग सौं, अरु प्रदेश सौं बन्ध । मुक्तजीव ऊरध चलें विदिसा विनगति अंध ।।३३१।। (सवैया इकतीसा ) जग में अनादि जीव बंधन विधान बंध्या, प्रकृति प्रदेस बंधौ की योग” विलोकिए। थिति और अनुभाग होंहि हैं कषाय सेती, एई चारों बंध भेद जीवभाव रोकिए ।। भवः भवान्तर कौं चलै चारौं दिसा और, ___ऊरध अधोविभाग जहाँ जाकौं लोकिए। बंधन सौं मोख होय ऊरघ कौं जाय सोई, रज्वी गति ग्रन्थ विर्षे सदाकाल धोकिए।।३३२ ।। उक्त छन्दों में कवि हीरानन्द ने इसप्रकार कहा है कि ह्र जग में अनादि से जीव प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंधों से बंधे हैं। इनमें प्रकृति व प्रदेशबंध में योग निमित्त हैं तथा स्थिति व अनुभाग में कषाय निमित्त होती है। जन्मान्तर के लिए जीव चारों दिशाओं में एवं ऊपर-नीचे गमन करता है। गुरुदेवश्री कानजी स्वामी भावार्थ में कहते हैं कि "जो जीव आठों कर्मों का अभाव करता है, वह एक समय में अपने ऊर्द्धगमन स्वभाव से श्रेणीबद्ध प्रदेशों द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। मोक्षगामी जीव अर्द्धगमन स्वभाव से एकसमय में लोकान में पहँच जाता है तथा समस्त संसारी जीव मात्र दिशाओं में गमन करते हैं, चारविदिशाओं में नहीं जाते।" यहाँ तक जीव द्रव्य का व्याख्यान पूर्ण हुआ। अब आगे पुद्गल द्रव्य अस्तिकाय का व्याख्यान करेंगे। गाथा-७४ विगत गाथा में जीवास्तिकाय का समापन करते हुए कहा है कि ह्र प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध एवं प्रदेशबंध से सर्वतः मुक्त जीव ऊर्द्धगमन करता है, शेष सभी संसारी जीव चार विदिशाओं को छोड़कर छ: दिशाओं में गमन करते हैं। अब प्रस्तुत गाथा में पुद्गलास्तिकाय का व्याख्यान करते हैं। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणू। इदि ते चदुव्वियप्पा पोग्गलकाया मुणेदव्वा।।७४।। (हरिगीत) स्कन्ध उनके देश अर परदेश परमाणु कहे। पुद्गलकाय के ये भेद चतु यह कहा जिनवर देव ने||७४|| पुद्गल काय के चार भेद हैं ह्र १. स्कन्ध २. स्कन्धदेश ३. स्कन्ध प्रदेश और ४. परमाणु। आचार्य अमृत टीका में कहते हैं कि ह्न यह पुद्गलद्रव्य के भेदों का कथन है। ये पुद्गल द्रव्य कदाचित् स्कन्ध पर्याय से, कदाचित् स्कन्धदेश रूप पर्याय से, कदाचित् स्कन्ध प्रदेशरूप पर्याय से और कदाचित् परमाणु रूप पर्याय से यहाँ लोक में हैं। इसप्रकार उनके चार भेद हैं; पुद्गल द्रव्य के अन्य कोई भेद नहीं है। कवि हीरानन्दजी उक्त भाव को काव्य में कहते हैं : (दोहा) खंद-खंददेसी लसै, खंद प्रदेस बखान । परमाणु ए चारि विध, पुद्गल-दरब प्रमाण ।।३३४।। (141) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १६४, पृष्ठ-१३०३, दिनांक ४-४-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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