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________________ २६२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन दस थान वरती है चेतन दरब एक, जाने जिनवानीवाला वस्तु निरभेद है ।। ३३० ।। उक्त छन्दों में कवि हीरानन्द ने वस्तु के विविध दृष्टिकोणों या विविध पहलुओं को उजागर करते हुए दस बोल कहे हैं, जो इसप्रकार हैं (१) चेतनास्वरूप आत्मा एक (२) ज्ञान - दर्शन गुणों के भेदों से देखें तो आत्मा के दो गुण हैं। (३) ज्ञान चेतना, कर्म चेतना एवं कर्मफल चेतना ह्र ऐसे तीन भेद हैं । (४) चार गतियों की अपेक्षा से देखें तो जीव के चार प्रकार हैं, (५) पाँच भावों की अपेक्षा जीव के पाँच भेद हैं। (६) चार दिशाएँ एवं ऊपर-नीचे इस प्रकार से विग्रह गमन की अपेक्षा जीव के छह भेद हैं। (७) सात भंग की अपेक्षा सात भेद हैं, कर्मों एवं गुणों की अपेक्षा आठ प्रकार हैं तथा (९) नौ पदार्थों के भेद से जीव के नौ प्रकार हैं तथा (१०) दस स्थानगत भेद होते हुए भी उक्त दस स्थानवर्ती चेतन द्रव्य एक ही हैं। इसप्रकार मूल वस्तु निर्भेद है, उसमें कोई भेद नहीं है। इन दो गाथाओं पर चर्चा करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने विशेष यही कहा है कि ह्न जीवों में समय-समय पर जो नवीन अवस्थायें होती हैं, वे सब जीव के ही विभाव स्वभाव हैं। जीवों को समय-समय पर जुदे - जुदे राग-द्वेष के भाव होते हैं। काम, क्रोध, मिथ्यात्व, समकित, केवलज्ञान, सिद्धदशा वगैरह का जो उत्पाद होता है, वह जीव की तत्समय की योग्यता से स्वयं के कारण ही होता है, किसी कर्मादि के कारण नहीं । यद्यपि उत्पाद स्वतंत्र बताया है; पर द्रव्य मात्र उत्पाद जितना ही नहीं है; किन्तु परिपूर्ण है। इसप्रकार इन गाथाओं में द्रव्य तथा पर्याय को विभिन्न प्रकारों तथा विविध विकल्पों का ज्ञान कराया है। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १६०, पृष्ठ- १२७४, दिनांक ३१-३-५२ · (140) गाथा - ७३ विगत गाथा ७१-७२ में कहा है कि वह महान आत्मा वस्तुतः तो नित्य चैतन्य उपयोगी होने से एक ही है, परन्तु विविध अपेक्षाओं से या विभिन्न धर्मों की अपेक्षा उसके यहाँ १० भेद किये हैं। प्रस्तुत गाथा में मुक्त व संसारी जीवों के गमन का व्याख्यान है। मूलगाथा इसप्रकार है ह्र पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं सव्वदो मुक्को । उड्ढं गच्छदि सेसा विदिसावज्जं गदिं जंति ।। ७३ ।। (हरिगीत) प्रकृति थिति अनुभाग बन्ध प्रदेश से जो मुक्त हैं। वे उर्द्धगमन स्वभाव से हैं प्राप्त करते सिद्धपद ||७३ || प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेश बंध से सर्वतः मुक्तजीव ऊर्ध्वगमन करता है। शेष संसारी जीव मरणांत में चारों विदिशाओं को छोड़कर पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ऊर्द्ध एवं अधो ह्न इन छह दिशाओं में गमन करते हैं। तथा मुक्त जीवों के स्वाभाविक रूप से ऊर्द्ध गमन होता है। आचार्य अमृतचन्द्रजी टीका में कहते हैं कि ह्न “बद्ध जीव को कर्म निमित्तिक षड्विधगमन होता है, मुक्त जीव को भी स्वाभाविक ऊर्द्धगमन होता है ऐसा यहाँ कहा है।" भावार्थ यह है कि ह्न समस्त रागादिभाव रहित जो शुद्धात्मानुभूति लक्षण ध्यान के बल द्वारा चतुर्विध बंध से सर्वथा मुक्त हुआ जीव स्वाभाविक अनन्त ज्ञानादिगुणों से वर्तता हुआ एक समयवर्ती अविग्रहति द्वारा स्वाभाविक उर्द्धगमन करता है। कवि हीरानन्दजी काव्य में इसी भाव को व्यक्त करते हैं ह्र
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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