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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन इसप्रकार 'कर्म कर्म को ही करता है और आत्मा आत्मा को ही करता है' यह बात सर्वथा सही नहीं है। इसके निराकरण के लिए अगली गाथा कहेंगे। २३६ कवि हीरानन्दजी इसी बात को इसप्रकार कहते हैं (दोहा) करम करम कौं जो करै, अरु अपने कौं आप । कैसे फल आतम लहै, करम देइ फल ताप ।। ३०४ ।। ( सवैया इकतीसा ) जैसैं के पुद्गलाणु अपना करम करै, और की अपैक्षा नाहिं वस्तुरूप लागे है । ऐसें ही आतम आप भाव सुद्धासुद्ध करै, पर की अपेक्षा नाहिं आपरूप जागे है । आनकर्म आनफल ताका भोगवत हारा, आन कहौ कैसे बने साँचा अंग भागे है। स्याद्वाद जैनी जीव वस्तु जथा थान साधै, निचै विवहारी के वस्तु तत्त्व आगे है ।। ३०५ ।। दोहा नं. ३०४ में पूर्वपक्ष की ओर से कहा है कि ह्न यदि कर अपना कार्य करे तथा जीव अपना कार्य करे तो करम का फल आत्मा कैसे प्राप्त करे ? और कर्म आत्मा को फल क्यों कर देवे ? आगे यह कहा है कि ह्न “इसप्रकार अन्य कर्म करे और अन्य फल भोगे ह्र ऐसा कैसे संभव है? जैन तो स्याद्वादी हैं, अतः वे तो वस्तु अपेक्षा लगाकर यथार्थ स्वरूप सिद्ध करते हैं, निश्चय व्यवहार की अपेक्षा लगाकर वस्तुतत्त्व साधते हैं। इस गाथा को स्पष्ट करते हुए सत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी प्रश्न-उत्तर के रूप में कहते हुए प्रश्न करते हैं कि ह्न “रूपी कर्म अपने रूपी स्वरूप का कर्त्ता है तो अरूपी आत्मा जड़ स्वरूप रूपी कर्मों को कैसे भोगे? तथा जड़कर्म चैतन्य स्वरूप अरूपी आत्मा को कैसे फल देवे ? समाधान करते हुए वे स्वयं कहते हैं कि ह्न निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा जिसप्रकार किसी भी प्रकार से कर्म को भोगता नहीं है, उसीप्रकार (127) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) २३७ कर्म भी आत्मा को फल नहीं देता, किन्तु आत्मा जब अपने अज्ञान के कारण राग-द्वेष के परिणाम करता है तब परपदार्थों को सुख-दुःख दाता मान लेता है तथा ऐसा कहता है कि कर्मों ने फल दिया है। अज्ञानी जीव को आत्मा व पर पदार्थों की खबर नहीं है, इसकारण वह मानता है कि ह्न ‘मैं इन जड़ पदार्थों को भोगता हूँ।' छुरी लगने पर अज्ञानी छुरा का अनुभव नहीं करता, बल्कि राग-द्वेष का अनुभव करता है। कहते हैं कि ह्न 'जब किसीका अग्नि में हाथ पड़ जावे तो वह अग्नि का अनुभव नहीं करता, उसके प्रति अपने राग-द्वेष का ही अनुभव करता है। यदि पर पदार्थ के (इष्ट-अनिष्ट) संयोग के कारण दुःख हो तो केवली भगवान को दुःख होना चाहिए; क्योंकि वे तो सब जानते हैं, समुद्घात समय वे नरक में भी जाते हैं तो भी उन्हें दुःख नहीं होता; क्योंकि उन्हें राग-द्वेष नहीं है। अज्ञानी को भी पर के कारण दुःख नहीं है, शरीर में रोग आने पर वह ऐसा मानता है कि 'मुझे रोग आया, इसलिए दुःखी हूँ । रोग के प्रति वह जो द्वेष अनुभवता है, उसका उसे दुःख है । यदि जीव स्वयं को पर से जुदा माने एवं ऐसा माने कि विकार क्षणिक है। मैं तो शुद्ध चैतन्य द्रव्य हूँ ह्र ऐसा भान करे तो धर्म हो; किन्तु अज्ञानी को शुद्ध चैतन्य स्वभाव का भान नहीं है, इसकारण वह विपरीत मान्यता करता है। बिच्छू काटने पर उसके डंक का अनुभव नहीं करता; किन्तु द्वेष का अनुभव करता है।" इसप्रकार इस गाथा में कहा है कि ह्न अपने राग-द्वेष का परिणाम करते हुए तथा उन राग-द्वेष को पर के कारण हुए मानकर अज्ञानी पर रूप अनुभव करता है। किन्तु जड़ पदार्थ से आत्मा जुदा है, ऐसा नहीं मानता। इसकारण वह अज्ञान व राग-द्वेष का अनुभव करता हुआ ऐसा मानता है कि ह्न 'मैं परपदार्थों को भोगता हूँ। कर्मों ने मुझे फल दिया और मैं उस फल को भोगता हूँ' ह्र ऐसा मान रहा है । उस समय भी जो परिणाम करता है, वे परिणाम भी स्वयं से ही करता है, कर्मों के कारण नहीं करता, किन्तु कर्मों ने फल दिया और मैं उन्हें भोगता हूँ ह्र ऐसा मानकर परद्रव्य सम्बन्धी सुख-दुःख मान लेता है। • १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १५४, गाथा ६३, पृष्ठ- १२३३. दि. २५-३-५२ के बाद
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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