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________________ पञ्चास्तिकाय परिशीलन गुरुदेवश्री कानजीस्वामी उक्त भाव को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ह्र कर्मरूप से परिणमित हुए पुद्गल स्कंध निश्चय से अपने स्वभाव से यथार्थ जैसे के तैसे अपने स्वरूप को करते हैं। तथा जीवपदार्थ भी अपने स्वरूप द्वारा आपको आपरूप करता है।" २३४ जीव व पुद्गलों में जो अपने-अपने कर्ता कर्म करण अभेद षट्कारक होते हैं; उनके स्वरूप की सविस्तार चर्चा करते हुए श्रीकानजी स्वामी कहते हैं कि ह्न इसप्रकार पुद्गल द्रव्य स्वतंत्र रूप से एकसमय में छह कारक रूप से परिणमन करता है। जीव द्रव्य के कारण नहीं परिणमता । इन्हें अभेद षट्कारण कहा; क्योंकि ये पर में नहीं है और जीवादि के षट्कारक उसके अपने कारण होते हैं, वे भी स्वयं के कारण ही होते हैं, पर के कारण नहीं होते। इसीप्रकार पुण्य-पाप के षट्कारक भी अपनेअपने होते हैं। इसप्रकार इस गाथा के माध्यम से जीव व पुद्गल के स्वतंत्र षट्कारकों की चर्चा की। १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. १५४, गाथा- ६७, दिनांक २४-३-५२, पृष्ठ १२२७ (126) गाथा- ६३ विगत गाथा ६२ में कहा है कि ह्न कर्म भी अपने स्वभाव से अपने को करते हैं और वैसा ही जीव भी कर्म स्वभावभाव से (औदयिक आदि भावों से) अपने को करते हैं। अब इस ६३वीं गाथा में पूर्व पक्ष प्रस्तुत कहते हुए तर्क दिया गया है कि ह्न जब जीव व कर्म में परस्पर अकर्त्तापन है तो अन्य का दिया फल अन्य क्यों भोगे? मूल गाथा इसप्रकार है ह्र कम्मं कम्मं कुव्वदि जदि सो अप्पा करेदि अप्पाणं । किध तस्स फलं भुंजदि अप्पा कम्मं च देदि फलं ।। ६३ ।। (हरिगीत) यदि करम करते करम को, आतम करे निज आत्म को । क्यों करम फल दे जीव को, क्यों जीव भोगे करम फल ||६३ ॥ यदि कर्म कर्म को करे और आत्मा आत्मा को करे तो कर्म आत्मा को फल क्यों देगा तथा आत्मा उसका फल क्यों भोगेगा? आचार्य अमृतचन्द उक्त भाव का स्पष्टीकरण करते हुए टीका में कहते हैं कि ह्न यदि कर्म और जीव को परस्पर अकर्त्तापना हो तो ऐसा प्रश्न उत्पन्न होगा कि ह्न अन्य का दिया हुआ फल अन्य क्यों भोगे ? पर ऐसा तो है नहीं। शास्त्रों में तो ऐसा कथन आता है कि ह्न पौद्गलिक कर्म जीव को फल देते हैं और जीव पौद्गलिक कर्मों का फल भोगता है। यदि जीव कर्म को करता ही न हो तो जीव से नहीं किया गया कर्म जीव को फल क्यों देगा? और जीव अपने से नहीं किए कर्म के फल को क्यों भोगेगा? जीव से नहीं किया गया कर्म जीव को फल दे और जीव उस फल को भोगे ह्र यह तो किसी प्रकार न्याययुक्त नहीं है।
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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