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________________ १९२ नियमसार अनुशीलन (मनहरण कवित्त) ज्ञान इकसहजपरमातमा को जानकर। लोकालोक ज्ञेय के समूह को हैजानता। ज्ञान के समान दर्शन भी तो क्षायिक है। वह भी स्वपर को है साक्षात् जानता। ज्ञान-दर्शन द्वारा भगवान आतमा। स्वपर सभी ज्ञेयराशि को है जानता। ऐसे वीतरागी सर्वज्ञ परमातमा। स्वपरप्रकाशी निज भाव को प्रकाशता ||२७७|| ज्ञान एक सहज परमात्मा को जानकर लोकालोक संबंधी समस्त ज्ञेयसमूह को प्रगट करता है, जानता है। नित्य शुद्ध क्षायिकदर्शन भी साक्षात् स्वपरविषयक है; वह भी स्व-पर को साक्षात् प्रकाशित करता है। यह भगवान आत्मा ज्ञान-दर्शन के द्वारा स्व-पर संबंधी ज्ञेयराशि को जानता है। उक्त सम्पूर्ण प्रकरण में गाथा में, टीका में और टीका में उद्धृत किये गये छन्द में तथा टीकाकार द्वारा लिखे गये छन्द में ह्र सभी में इसी बात को तर्क और युक्ति से, पुष्ट प्रमाणों से यही सिद्ध किया गया है कि ज्ञान स्वपरप्रकाशक है, दर्शन स्वपरप्रकाशक है और आत्मा भी स्वपरप्रकाशक है। कोई अज्ञानी जीव किसी अन्य जीव को वस्तुत: मार तो सकता नहीं, किन्तु मारने की बुद्धि करता है, तब उसकी वह बुद्धि तथ्य के विपरीत होने से मिथ्या है; उसीप्रकार जब कोई जीव किसी को बचा तो नहीं सकता, किन्तु बचाने की बुद्धि करता है, तब उसकी यह बचाने की बुद्धि भी उससे कम मिथ्या नहीं है। मिथ्या होने में दोनों में समानता है। मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है, जो दोनों में समान रूप से विद्यमान है। तो भी बचाने का भाव पुण्य का कारण है और मारने का भाव पाप का कारण है। ये दोनों प्रकार के भाव भूमिकानुसार ज्ञानियों में भी पाए जाते हैं। यद्यपि उनकी श्रद्धा में वे हेय ही हैं, तथापि चारित्र की कमजोरी के कारण आए बिना भी नहीं रहते। हमैं कौन हूँ, पृष्ठ-२७ नियमसार गाथा १६२ इस गाथा में विगत गाथा में प्रतिपादित बात को ही आगे बढ़ा रहे हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं । ण हवदि परदव्वगयं दसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६२।। (हरिगीत) पर का प्रकाशक ज्ञान तो दग भिन्न होगा ज्ञान से। पर को न देखे दर्श ह ऐसा कहा तुमने पूर्व में ||१६|| यदि ज्ञान परप्रकाशक ही हो तो ज्ञान से दर्शन भिन्न सिद्ध होगा; क्योंकि दर्शन परप्रकाशक नहीं है, तेरी मान्यता संबंधी ऐसा वर्णन पूर्व सूत्र में किया गया है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ “यह पूर्वसूत्र अर्थात् १६१वीं गाथा में कहे गये पूर्वपक्ष के सिद्धान्त संबंधी कथन है। ___ यदि ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो इस परप्रकाशन प्रधान ज्ञान से दर्शन भिन्न ही सिद्ध होगा; क्योंकि सह्याचल और विन्ध्याचल के समान अथवा गंगा और श्रीपर्वत के समान परप्रकाशक ज्ञान और स्वप्रकाशक दर्शन का संबंध किसप्रकार होगा? ___यदि कोई ऐसा कहे तो कहते हैं कि जो आत्मनिष्ठ (स्वप्रकाशक) है, वह तो दर्शन ही है। उस दर्शन और ज्ञान को निराधार होने से अर्थात् आत्मरूपी आधार न होने से शून्यता की आपत्ति आ जावेगी अथवा जहाँ-जहाँ ज्ञान पहुँचेगा; अर्थात् जिस-जिस द्रव्य को ज्ञान प्राप्त करेगा, ज्ञान जानेगा; वे-वे सभी द्रव्य चेतनता को प्राप्त होंगे। इसकारण तीन लोक में कोई अचेतन पदार्थ सिद्ध नहीं होगा ह्र यह महान दोष आयेगा।
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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