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________________ नियमसार गाथा १५८ यह निश्चय परमावश्यक अधिकार के उपसंहार की गाथा है। इसमें कहा गया है कि आजतक जो भी महापुरुष केवली हुए हैं; वे सभी उक्त निश्चय आवश्यक को प्राप्त करके ही हुए हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं च काऊण । अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा । । १५८ ।। ( हरिगीत ) यों सभी पौराणिक पुरुष आवश्यकों को धारकर । अप्रमत्तादिक गुणस्थानक पार कर केवलि हुए ।। १५८।। सभी पौराणिक महापुरुष इसप्रकार के आवश्यक करके, अप्रमत्तादि गुणस्थानों को प्राप्त करके केवली हुए हैं। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह परमावश्यक अधिकार के उपसंहार का कथन है। स्वयं बुद्ध तीर्थंकर परमदेवादि एवं बोधित बुद्ध अप्रमत्तादि गुणस्थानों से लेकर सयोग केवली पर्यन्त गुणस्थानों की पंक्ति में आरूढ़ सभी पुराण पुरुष साक्षात् मुक्तिरूपी स्त्री के अशरीरी सुख के कारण को जानकर बाह्य व्यवहार आवश्यकादि क्रिया से प्रतिपक्ष (विरुद्ध) अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निश्चय धर्मध्यान और शुक्ल ध्यानस्वरूप शुद्ध निश्चय परमावश्यकरूप आत्माराधना के प्रसाद से सकल प्रत्यक्ष ज्ञानधारी केवली हुए हैं।" इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “शुद्ध चैतन्य के अवलम्बन से जो निर्मलता प्रगट होती है, उस निर्मलता से सभी जीव मोक्षदशा प्राप्त करते हैं। सभी पुराणपुरुष अर्थात् 85 गाथा १५८ : निश्चय परमावश्यक अधिकार १६९ सभी अतीतकालीन महापुरुषों ने इसी विधि से मोक्ष प्राप्त किया हैं, नये - पुराने लोगों के लिये अलग-अलग विधि नहीं है; बल्कि भूतकालीन पुरुषों ने इस ही विधि से मोक्ष प्राप्त किया तथा भविष्य में होनेवाले सभी महापुरुष भी इसीप्रकार मोक्ष प्राप्त करेंगे। उन पुरुषों में तीर्थंकर तो स्वयंबुद्ध हुये। स्वयंबुद्ध का अर्थ यह है कि जिन्होंने पूर्व पर्याय में तो देशनालब्धि प्राप्त की थी; परन्तु वर्तमान पर्याय में गुरु का निमित्त नहीं था। पहले सच्चे गुरु से धर्म की बात सुनी थी; परन्तु वहाँ धर्म नहीं प्राप्त किया तथा अगली पर्याय में गुरु के निमित्त बिना ही पहले के संस्कार याद करके सम्यग्दर्शनरूप धर्म प्राप्त किया । इसप्रकार धर्म प्राप्त करने को निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं तथा गुरु की उपस्थिति में धर्म प्राप्त करने को अधिगमज सम्यग्दर्शन कहते हैं । " यहाँ पुराण पुरुषों के तीन प्रकार बताए गए हैं १. स्वयंबुद्ध तीर्थंकर २. स्वयंबुद्ध क्षायिक सम्यग्दृष्टि ३. जिन्होंने गुरु के समझाने से मोक्ष प्राप्त किया। - ऐसे तीन प्रकार के पुराण पुरुष सातवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त गुणस्थानों की पंक्ति में आरूढ़ होकर, परम आवश्यक रूप आत्मा की आराधना के प्रसाद से केवली - सकल प्रत्यक्षज्ञानधारी हुए हैं। यहाँ मुनिराज की मुख्यता से कथन है; अतः सातवें गुणस्थान से बात की है। तथा चौथा - पाँचवाँ गुणस्थान भी आत्मा के अवलंबन से ही प्रगट होता है। सम्यग्दर्शन, श्रावकपना, मुनिपना, श्रेणी चढ़ने, वीतरागता प्रगट होने और केवलज्ञान प्रगट करने का कारण शुद्ध द्रव्य ही है तथा शुद्ध द्रव्य के अवलंबन से प्रगट होनेवाली निर्विकारी क्रिया, निश्चय आवश्यक क्रिया है। किसी भी प्रकार का राग, निमित्त, संहनन इत्यादि केवलज्ञान का कारण नहीं है। मुनिराज पुण्य-पाप के वश न होकर तथा स्व के वश होकर, निर्मल क्रिया के द्वारा विकल्पों का अभाव करके सातवाँ गुणस्थान प्राप्त करते हैं तथा निज द्रव्य के ही अवलम्बन १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३१३
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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