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________________ १६७ १६६ नियमसार अनुशीलन जन्म-मरणरूपी रोग के कारणभूत समस्त परिग्रह को छोड़कर, हृदय कमल में बुद्धिपूर्वक पूर्ण वैराग्य भाव धारण करके, सहज परमानन्द से अव्यग्र अनाकुल निजरूप में पुरुषार्थपूर्वक स्थित होकर, मोह के क्षीण होने पर हम इस लोक को सदा तृण समान देखते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यहाँ मुख्यरूप से मुनिराज की बात है। मुनिराज को लक्ष्य करके कहा जा रहा है कि हे मुनिराज! तुम्हारे चैतन्यस्वभाव में, अनाकुल शान्ति में रहनेवाली जो आवश्यक क्रिया है, वही तुम्हारा स्वरूप है। पुण्य-पाप के भाव तुम्हारे स्वरूप नहीं हैं; क्योंकि वे यदि स्वभाव होते तो उन्हें कायम रहना चाहिए; परन्तु अशुद्धता सिद्धों में से निकल जाती हैं; अतः वह तुम्हारा स्वरूप नहीं है। ज्ञानस्वभाव ही तुम्हारा स्वरूप है, उसमें एकाग्र होना ही मुक्ति का मार्ग है तथा जो तुम्हें २८ मूलगुण पालन करने का शुभ विकल्प आता है, वह पुण्यास्रव और आकुलता है। वह तुम्हारी आत्मलीनता में कारण नहीं है। अतः स्वरूप में ऐसे लीन हो जाओ कि मोह का नाश हो जाय । टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव महासमर्थ मुनि थे। छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलते थे। वे कहते हैं कि हम अपने ज्ञानस्वभाव में स्थित रहकर मोह क्षीण होने पर लोक को सदा तृणवत् देखते हैं। देखो; यह मुनिदशा! मुनिराज के लिए इन्द्रों का इन्द्रासन, सर्वार्थसिद्धि देव की पर्याय, समवशरणादि तण समान हैं। वे पदार्थ हमारे स्वभाव में नहीं हैं, वे तो ज्ञाता के ज्ञेय हैं। जिसप्रकार जगत में तृण ज्ञान का ज्ञेय मात्र होता है, उसका अन्य कोई मूल्य नहीं है; उसीप्रकार समस्त जगत घास के ढेर के समान हमारे ज्ञान में ज्ञात होता है; परन्तु हमारे लिए उसका कोई मूल्य नहीं है। हमारे ज्ञानस्वभाव में तो भगवान भी ज्ञेयरूप से प्रतिभासित होते हैं गाथा १५७ : निश्चय परमावश्यक अधिकार तथा उनके प्रति होनेवाला शुभराग का भी हमारे लिये तो कोई मूल्य नहीं है, वह हमारे किसी काम का नहीं है। हमको तो हमारी महिमा आती है। हमारे भगवान तो हम स्वयं ही हैं। हमारा आत्मा सर्वज्ञ हो सकता है - ऐसी प्रतीति हमें निरन्तर वर्तती है। हमारे माहात्म्य के सामने जगत की कोई चीज अथवा शुभराग का माहात्म्य नहीं है। इसप्रकार शुद्धचैतन्यस्वभाव की महिमा उत्पन्न करना तथा राग और पुण्य की महिमा छोड़ना ही आवश्यक क्रिया है तथा वही मुक्ति का मार्ग है, धार्मिक क्रिया है।" ध्यान देने की बात यह है कि टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इस छन्द में उत्तम पुरुष में अत्यन्त स्पष्टरूप से लिख रहे हैं कि हम सम्पूर्ण लोक को तृणवत देखते हैं। यद्यपि यह बात भी सत्य हो सकती है, होगी ही; तथापि छन्द का मूल भाव यही है कि जिसका मोह क्षीण हो गया है; उन वीतरागी भावलिंगी मुनिराजों की दृष्टि में यह सम्पूर्ण जगत तृणवत् तुच्छ है। उन्हें इस जगत से कोई अपेक्षा नहीं है। जबतक किसी व्यक्ति को यह सम्पूर्ण जगत, उसका वैभव, घास के तिनके के समान तुच्छ भासित न हो उसमें रंचमात्र भी सुख नहीं है' ह्र यह बात अन्तर की गहराई से न उठे; तबतक वह जगत के इस वैभव को ठुकरा कर, सम्पूर्ण धन-सम्पत्ति का त्याग कर नग्न दिगम्बर मुनिदशा कैसे स्वीकार कर सकता है ? यदि कोई व्यक्ति लौकिक सुख की कामना से, यश के लोभ से या अज्ञान से नग्न दिगम्बर दशा धारण करता है तो ऐसे व्यक्ति को अष्टपाहुड में नटश्रमण कहा है। तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार नट विभिन्न वेष धारण करता है; उसीप्रकार इसने भी नग्न दिगम्बर दशा धारण की है; अत: यह सच्चा दिगम्बर मुनि नहीं है।।२६९।। 84 १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३०८-१३०९
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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