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________________ १५८ नियमसार अनुशीलन अथवा तीव्रतर, तीव्र, मंद और मन्दतर उदय भेदों के कारण अनेक प्रकार हैं। जीवों को सुखादि की प्राप्तिरूप लब्धि ह्र काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप भेदों के कारण पाँच प्रकार की है। इसलिए परमार्थ के जाननेवालों को स्वसमयों और परसमयों के साथ वाद-विवाद करना योग्य नहीं है। " आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “इस गाथा में आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि हे प्राणियो ! इस जगत में अनेक प्रकार के जीव हैं, भव्य भी हैं और अभव्य भी हैं। तू किस-किस को समझायेगा ? तू तो स्वयं समझ कर अपने में स्थिर हो जा । जिसकी योग्यता होगी, वह समझ जायेगा और अयोग्य जीव तो साक्षात् भगवान के समवशरण में जाकर भी नहीं समझते हैं। इसलिए समझाने का विकल्प से शांत हो और स्वयं समझकर अपने में स्थिर हो जा । वाद-विवाद से पार पड़े ह्र ऐसा नहीं है। तथा सभी जीव निमित्त अपेक्षा अनेक प्रकार के कर्मवाले हैं, अनेक प्रकार की लब्धिवाले हैं, अनेक प्रकार की भिन्न-भिन्न योग्यतावाले हैं; तू किस-किसको समझायेगा ? इसलिए चाहे वह जैनधर्मावलम्बी हो या अन्य धर्मावलम्बी हो किसी के भी साथ वाद-विवाद नहीं करना चाहिए।" उक्त गाथा में तो मात्र यही कहा गया है कि जीव अनेक प्रकार हैं, उनके कर्म (ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म और देहादि नोकर्म अथवा कार्य) अनेक प्रकार के हैं और उनकी लब्धियाँ, उपलब्धियाँ भी अनेक प्रकार की हैं; अतः सभी की समझ, मान्यता, विचारधारा एक कैसे हो सकती है ? यही कारण है कि सभी जीव के परिणामों में विभिन्नता देखी जाती है, मतभेद पाया जाता है; इसकारण सभी को १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १२८० 80 गाथा १५६ : निश्चय परमावश्यक अधिकार १५९ एकमत करना संभव नहीं है, समझाना भी संभव नहीं है; क्योंकि बहुत कुछ सामनेवाले की योग्यता पर ही निर्भर होता है। यदि तुझे समझाने का भाव आता है तो कोई बात नहीं; अपने विकल्प की पूर्ति कर ले; पर तेरे समझाने पर भी कोई न माने, स्वीकार न करे तो अधिक विकल्प करने से कोई लाभ नहीं। समझाने के विकल्प से किसी से वाद-विवाद करना तो कदापि ठीक नहीं है। न तो अपने मतवाले के साथ और न अन्यमतवालों के साथ विवाद करना कदापि ठीक नहीं है। टीकाकार मुनिराज ने नाना जीव का अर्थ करते हुए जीवों के मुक्त और संसारी, संसारियों के त्रस और स्थावरादि भेद गिना दिये अथवा भव्य - अभव्य की बात कर दी। उनका स्वरूप भी संक्षेप में समझा दिया । कर्म में ज्ञानावरणादि ८ मूल प्रकृतियों और १४८ उत्तर प्रकृतियों की चर्चा कर दी। लब्धियों के भी पाँच भेद गिना दिये । मैं क्षमायाचनापूर्वक अत्यन्त विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि मुझे ऐसा लगता है कि यहाँ इन सब की आवश्यकता नहीं थी; क्योंकि एक तो नियमसार का अध्येता इन सब जैनदर्शन संबंधी प्राथमिक बातों से भलीभाँति परिचित ही है; दूसरे यहाँ मुख्य वजन तो स्वसमय और परसमय के साथ वाद-विवाद नहीं करने की बात पर है। समझने-समझाने के विकल्प में पड़ कर वाद-विवाद में उलझ जाना समझदारी का काम नहीं है, केवल मनुष्यभव के कीमती समय को व्यर्थ में बर्बाद करना ही है। गृहस्थों को भी उक्त महत्त्वपूर्ण सलाह अत्यन्त उपयोगी है, परन्तु मुनियों के लिए तो अत्यन्त आवश्यक है, अनिवार्य है। नाना जीव का आशय विभिन्न रुचिवाले जीवों से है। आचार्य अकलंकदेव ने भी राजवार्तिक में इसप्रकार के प्रसंग में ऐसा ही कहा है । वे लिखते हैं "विभिन्नरुचयः हि लोकाः ह्र लौकिकजन भिन्नभिन्न रुचिवाले होते हैं । "
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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