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________________ १५६ नियमसार अनुशीलन पर राग को बदलने का स्वभाव भी आत्मा में नहीं है। आत्मा का स्वभाव तो मात्र जानने का है अर्थात् जानना ही एकमात्र आत्मा का कर्तव्य है। इसलिए फेर-बदल करने की दृष्टि को ही फेरना / बदलना है। जो दृष्टि अभी तक पुण्य-पाप में अटकी हुई है, उसे स्वभावसन्मुख करने पर सबकुछ बदल जाता है। अज्ञानियों का सम्पूर्ण अभिप्राय मिथ्या होता है। इसलिए उनकी ओर ध्यान मत दो और उनके द्वारा किये जानेवाले उपद्रवों के भय से मुक्त हो जावो ।' जड़ वाणी का तथा उसके प्रति होनेवाले राग का लक्ष्य छोड़ने पर ही शाश्वत सुखदायी तत्त्व की प्राप्ति होती है। राग, पुण्य-पाप और निमित्त सुखदायी नहीं है; परन्तु एकमात्र निज ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा ही अतीन्द्रिय सुखदायी है और उसकी साधना ही आवश्यक क्रिया है । बाकी सम्पूर्ण शुभ-अशुभ भाव हेय हैं, उनसे कल्याण नहीं होता । निजतत्त्व की प्राप्ति ही एकमात्र सुख का मार्ग है। " इस छन्द में भी यही कहा गया है कि आत्मा के स्वरूप के प्रतिपादक शास्त्रों के अध्येता मुनिवर; अज्ञानियों द्वारा किये गये उपद्रवों की परवाह न करके, लौकिक जल्पजाल को छोड़कर शाश्वत सुख देनेवाले आत्मा की आराधना करते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि हमें आत्मकल्याण करना है तो हमें निज आत्मा की आराधना करना चाहिए ।। २६६ । । • १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १२७७ २. वही, पृष्ठ १२७८ इस जगत में बुराइयों की तो कमी नहीं है, सर्वत्र कुछ न कुछ मिल ही जाती हैं; पर बुराइयों को न देखकर अच्छाइयों को देखने की आदत डालनी चाहिए। अच्छाइयों की चर्चा करने का अभ्यास करना चाहिए। अच्छाइयों की चर्चा करने से अच्छाइयाँ फैलती हैं और बुराइयों की चर्चा करने से बुराइयाँ फैलती हैं। अतः यदि हम चाहते हैं कि जगत में अच्छाइयाँ फैलें तो हमें अच्छाइयों को देखने-सुनने और सुनाने की आदत डालनी चाहिए। चर्चा तो वही अपेक्षित होती, जिससे कुछ अच्छा समझने को मिले, सीखने को मिले। ह्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ- ८७ 79 नियमसार गाथा १५६ विगत गाथा में सब ओर से उपयोग हटाकर अपने आत्मा के हित में गहराई से लगना चाहिए ह्र ऐसा कहा था; अब इस गाथा में यह कहते हैं कि स्वमत और परमतवालों के साथ वाद-विवाद में उलझना ठीक नहीं है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी । तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ।। १५६ ।। ( हरिगीत ) हैं जीव नाना कर्म नाना लब्धि नानाविध कही । अतएव वर्जित बाद है निज पर समय के साथ भी || १५६ ॥ जीव अनेक प्रकार के हैं, कर्म भी अनेक प्रकार के हैं और लब्धियाँ भी अनेक प्रकार की हैं; इसलिए साधर्मी और विधर्मियों के साथ वचनविवाद वर्जनीय है, निषेध करने योग्य है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यह वचनसंबंधी व्यापार से निवृत्ति के हेतु से किया गया कथन है । जीव अनेक प्रकार के हैं। मुक्त जीव-अमुक्त जीव (संसारी जीव), भव्य जीव अभव्य जीव संसारी जीव ह्न त्रस और स्थावर । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय में संज्ञी - असंज्ञी ह्न इसप्रकार त्रस जीव पाँच प्रकार के हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ह्न ये पाँच प्रकार के स्थावर जीव हैं। भविष्यकाल में स्वभाव - अनन्तचतुष्टयात्मक सहज ज्ञानादि गुणों रूप से भवन - परिणमन के योग्य जीव भव्य हैं और उनसे विपरीत अभव्य हैं। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ह्न ऐसे भेदों के कारण अथवा आठ मूल प्रकृति और एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृति के भेद से
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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