SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार अनुशीलन ऐसी स्थिति में निर्मल बुद्धिवालों को भवभय को नाश करनेवाले निज के आत्मा का श्रद्धान करना चाहिए, उसे जानना चाहिए और उसमें ही अपनापन स्थापित करना चाहिए। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “इस असार संसार में पाप से भरपूर कलिकाल का विलास है । देह की क्रिया और पुण्य से धर्म माननेवाले लोग बहुत हैं।' इस काल में सर्वज्ञदेव द्वारा प्ररूपित मार्ग में भी पर्याय में साक्षात् मोक्ष नहीं कहा है, पर्याय में केवलज्ञान की प्राप्ति होना नहीं कहा है। अहो! वीतरागी मार्ग में भी मुक्ति नहीं है, तब फिर अन्यमत में तो कहाँ से होगी; इसलिए इस काल में आत्मा में विशेष लीनता और ध्यान भी कहाँ से हो ? अर्थात् जिस ध्यान से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, वह ध्यान इस काल में नहीं होता; इसलिए जिसे भवभय का नाश करना हो, 'मैं शुद्ध हूँ, ज्ञानानन्दमूर्ति हूँ' ऐसी श्रद्धा अंगीकार करने के बाद अप्रमत्तदशा धारण कर अंतर में संपूर्णपने स्थिर होने की श्रद्धा रखनी चाहिए। आत्मा में भव ही नहीं है, शरीर-मन-वाणी नहीं है। मेरा क्या होगा, मैं कहाँ जाऊँगा - ऐसी शंका भी धर्मी को नहीं होती । चैतन्य की निशंक श्रद्धा तो धर्मी को है ही, यहाँ तो उससे आगे मुनि की बात कही है। अतः श्रद्धा-उपरान्त अप्रमत्त वीतरागी चारित्र की श्रद्धा रखना ह्न ऐसा कहा है और मुनिराज अपने में ऐसी अडिग श्रद्धा रखते हैं । २" इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जब इस पंचमकाल में जैनदर्शन में भी मुक्ति नहीं है तो फिर अन्यत्र होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। ऐसी स्थिति में यदि हमें आत्मध्यान दुर्लभ लगता है तो फिर कम से कम हमें उक्त सही मार्ग का श्रद्धान तो करना ही चाहिए || २६४ ॥ १५० १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १२६८ २. वही, पृष्ठ १२६८ 76 नियमसार गाथा १५५ विगत गाथा में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहने के उपरान्त कि यदि कर सको तो ध्यानमय प्रतिक्रमणादि करो, अन्यथा उनका श्रद्धान करो; अब इस गाथा में जिनागमकथित निश्चय प्रतिक्रमणादि करने की प्रेरणा दे रहे हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं । मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्चं ।। १५५ ।। ( हरिगीत ) जिनवरकथित जिनसूत्र में प्रतिक्रमण आदिक जो कहे। कर परीक्षा फिर मौन से निजकार्य करना चाहिए ।। १५५ || जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये परमागम में प्राप्त प्रतिक्रमणादि की भले प्रकार परीक्षा करके मौन होकर योगी को प्रतिदिन अपना कार्य साधना चाहिए । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यहाँ साक्षात् अन्तर्मुख परमजिन योगी को यह शिक्षा दी गई है। श्रीमद् अरहंत भगवान के मुखारविन्द से निकले हुए समस्त पदार्थ जिसके भीतर समाये हुए हैं ह्न ऐसी चतुर शब्द रचनारूप द्रव्यश्रुत में कही गई शुद्ध निश्चयनयात्मक परमात्मध्यानात्मक प्रतिक्रमणादि सत्क्रिया को जानकर, केवल स्वकार्य में परायण परमजिनयोगीश्वर प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त वचन रचना को परित्याग कर, सम्पूर्ण संग (परिग्रह) की आशक्ति को छोड़कर, अकेला होकर, मौन व्रत सहित समस्त पशुजनों (पशु समान अज्ञानी मनुष्यों) द्वारा निन्दा किये जाने पर भी अव्यग्र रहकर निज कार्य को निरन्तर साधना चाहिए; क्योंकि वह आत्मध्यानरूप निजकार्य मुक्तिरूपी सुलोचना के सम्भोग के सुख का मूल है।"
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy