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________________ १२६ नियमसार अनुशीलन उक्त गाथा और उसकी टीका का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ “यहाँ तो कहते हैं कि सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की व्यवहार श्रद्धा आदि से अर्थात् व्यवहार रत्नत्रय से भी संसार का अभाव नहीं होता; परन्तु अपने शुद्धात्मा की श्रद्धा-ज्ञान-लीनता द्वारा ही संसार का अभाव होता है। इसलिए वही एक आवश्यक कर्म है। जिसे ऐसा आवश्यक कर्म होता है, वही अन्तरात्मा है। इसके अलावा भले जंगल में जाकर बैठ जाये और अपने को बड़ा ध्यानी-तपस्वी माने, तो भी वह अन्तरात्मा नहीं है अर्थात् जिसे शुद्धात्मा की भी श्रद्धा नहीं है, वह तो बहिरात्मा है।' अन्तर में जो पूर्ण ताकत भरी है, वह अन्तर में एकाग्रता के द्वारा ही प्रगट होती है। यदि कोई इसके विपरीत बाहर में आश्रय करने से कल्याण हो जायेगा ह्र ऐसा कहता हो, मानता हो तो वह तो कुगुरुकुदेव-कुशास्त्र के समान ही है। जो उसकी प्रतीति करता है, उसे आवश्यक कर्म नहीं होता। जिन्हें सम्यग्दर्शन सहित वीतरागचारित्र में परिपूर्ण लीनता है, उन्हें सर्वोत्कृष्ट अन्तरात्मा कहते हैं। ऐसे अन्तरात्मा महामुनिराज १६ कषायों के अभाव द्वारा क्षीणमोह पदवी को प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त करनेवाले हैं। जघन्य अन्तरात्मा असंयत सम्यग्दृष्टि हैं। 'अशरीरी सिद्ध भगवान के समान में सर्वप्रकार से पूर्णशुद्ध आत्मा/नित्यस्वरूपप्रत्यक्ष कारणपरमात्मा हूँ।' असंयत सम्यग्दृष्टि को ऐसा पूर्णस्वरूप आत्मा का भान है, उसके क्षणिक शुभाशुभभावों के स्वामित्वरहित/मिथ्यात्वरहित यथार्थभान वर्तता है; अखण्ड ज्ञातापने का ज्ञान, प्रतीति और आंशिक लीनता होने पर भी अभी असंयत अवस्था है। अतः वह अविरत सम्यग्दृष्टि गृहस्थ कहलाता है। गाथा १४९ : निश्चय परमावश्यक अधिकार १२७ अविरतसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा अन्दर में विशेष लीनता बढ़ने पर पंचम गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के सभी जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं। ___ जो जीव सर्वज्ञकथित निश्चय-व्यवहार दोनों नयों से प्ररूपित परम-आवश्यक क्रिया से रहित है, वह बहिरात्मा है - मिथ्यादृष्टि है। ___ सच्चे देव-शास्त्र-गुरु, नवतत्त्व हेय-उपादेय आदि प्रयोजनभूत बातों का जैसा निरूपण सर्वज्ञ के मार्ग में किया गया है, उनकी वैसी प्रतीति हुए बिना व्यवहार आवश्यक/समाधि/ध्यान कुछ भी नहीं होता। सच्चे देवादि की प्रतीति, सत्यार्थप्रकाशक आगम का यथार्थ ज्ञान और व्यवहार संयम - यह व्यवहार आवश्यक है और बुद्धिपूर्वक होनेवाले विकल्प से छूटकर अन्दर अकेले चिदानंदस्वभाव में निर्विकल्प परिणति निश्चय आवश्यक है।" उक्त सम्पूर्ण कथन से तो यही प्रतिफलित होता है कि यह निश्चय परम आवश्यक अर्थात् स्ववशपना मात्र मुनिराजों के ही नहीं होता; अपितु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर १२वें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोही भावलिंगी सन्तों तक सभी को अपनी-अपनी भूमिकानुसार होता है; क्योंकि ये सभी अन्तरात्मा हैं ।।१४९।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'उक्तं च मार्गप्रकाशे ह्न मार्गप्रकाश नामक ग्रन्थ में भी कहा है' ह्न ऐसा कहकर दो अनुष्टुप् छन्द उद्धृत करते हैं; जो इसप्रकार हैं ह्न (अनुष्टुभ् ) बहिरात्मान्तरात्मेति स्यादन्यसमयो द्विधा । बहिरात्मानयोर्देहकरणाद्युदितात्मधीः ।।६९।। जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादविरत: सुद्दक् । प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमोमध्यस्तयोः ।।७।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९३ २.मार्गप्रकाश ग्रंथ में उद्धृत श्लोक ३. वही १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९२ २. वही, पृष्ठ ९२
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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