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________________ १२४ नियमसार अनुशीलन सहज परम-आवश्यक को अवश्य करना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने से निजरस के विस्तार से पूर्ण भरा होने से पवित्र एवं सनातन आत्मा, वचन-अगोचर सहज शाश्वत सुख को प्राप्त करता है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "पर से निरपेक्ष शद्ध-आत्मा में एकाग्र होना आवश्यक कर्म है। चैतन्य को भूलकर पुण्य-पाप के वश होना, वह पराधीनता है। चैतन्य के अलावा किसी भी पर के वश/आधीन नहीं होना ह्र इसका नाम अवशपना है। ह्र इसप्रकार नास्ति से समझाया है। वास्तव में तो चिदानन्द स्वभाव में स्थिर रहना ही स्ववशपना/अवशपना है और यह जरूरी/मुख्य कर्त्तव्य है। पर्याय-अपेक्षा शुद्धरत्नत्रय की आवश्यक क्रिया ही मोक्ष का मूल है और द्रव्य-अपेक्षा शुद्ध कारणपरमात्मा ही मुक्ति का मूल है। ह्र ऐसे सहज परम आवश्यक को/एक को अतिशयपने सदा करना चाहिये।" इसप्रकार इस छन्द में यह कहा गया है कि यदि वचनातीत शाश्वत मुक्तिसुख की प्राप्ति करनी है तो इस निश्चय आवश्यक को अवश्य धारण करना चाहिए ।।२५६।।। (अनुष्टुभ् ) स्ववशस्य मुनीन्द्रस्य स्वात्मचिन्तनमुत्तमम् । इदं चावश्यकं कर्म स्यान्मूलं मुक्तिशर्मणः ।।२५७ ।। (दोहा) निज आतम का चिन्तवन स्ववश साधु के होय। इस आवश्यक करम से उनको शिवसुख होय।।२५७|| स्ववश मुनिराजों के उत्तम स्वात्मचिन्तन होता है और इस आत्म चिन्तनरूप आवश्यक कर्म से उन्हें मुक्तिसुख की प्राप्ति होती है। इस छन्द में स्वात्मचिन्तनरूप निश्चय आवश्यक को जीवन में निरंतर बनाये रखने की परम पावन प्रेरणा दी गई है।।२५७।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९० २. वही, पृष्ठ ९० नियमसार गाथा १४९ विगत गाथा में तो यह कहा था कि आवश्यक से रहित श्रमण चारित्र भ्रष्ट है; पर इस गाथा में तो यह कहा जा रहा है कि आवश्यक से रहित श्रमण बहिरात्मा है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्न आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा। आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ।।१४९ ।। (हरिगीत) श्रमण आवश्यक सहित हैं शुद्ध अन्तर-आत्मा। श्रमण आवश्यक रहित बहिरातमा हैं जान लो ||१४९|| आवश्यक सहित श्रमण अन्तरात्मा है और आवश्यक रहित श्रमण बहिरात्मा है। - इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ “यहाँ ऐसा कहा है कि आवश्यक कर्म के अभाव में तपोधन बहिरात्मा होता है। ___अभेद-अनुपचार रत्नत्रयस्वरूप स्वात्मानुष्ठान में नियत परमावश्यक कर्म से निरंतर संयुक्त स्ववश नामक परम श्रमण सर्वोत्कृष्ट अन्तरात्मा है। यह महात्मा सोलह कषायों के अभाव हो जाने से क्षीणमोह पदवी को प्राप्त करके स्थित है। असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है और इन दोनों के मध्य में स्थित सभी मध्यम अन्तरात्मा हैं। निश्चय और व्यवहार ह्र इन दो नयों से प्रतिपादित परमावश्यक क्रिया से रहित बहिरात्मा हैं। __तात्पर्य यह है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जघन्य अन्तरात्मा, बारहवें गुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट अन्तरात्मा और इन के बीच रहनेवाले पंचम गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के सभी जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं तथा प्रथम, द्वितीय व तृतीय गुणस्थानवाले बहिरात्मा हैं।"
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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