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________________ ७६ नियमसार अनुशीलन द्वारा मोह की समस्त महिमा नष्ट की है जिसने ह्र ऐसा मैं अब राग-द्वेष की परम्परारूप से परिणत चित्त को छोड़कर शुद्धध्यान द्वारा एकाग्र शान्त किये हुए चित्त से आनन्दस्वरूप तत्त्व में स्थिर रहता हुआ परमब्रह्म में लीन होता हूँ। इस छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "उस भक्तिसुख की सिद्धि के अर्थ मैं भी शुद्धयोग की भक्ति करता हूँ । हे जगत के भव्यजीवो! यदि तुम्हें घोर-अपार संसार भ्रमण का भय हो, तो तुम भी नित्यशरणरूप निर्भय निज परमपद की प्राप्ति के लिए उस उत्तमभक्ति की निरन्तर उपासना करो, उसका सेवन करो। परम वीतरागी निर्ग्रन्थ गुरु के सान्निध्य में निर्मल सुखकारी धर्म प्राप्त करके सम्यग्ज्ञान द्वारा मैंने मोह की समस्त महिमा को (व्यवहार पराश्रय की रुचि को ) नष्ट कर दिया है। और अब मन की चंचलता को छोड़कर शुद्धध्यान द्वारा एकाग्र शान्तचित्त से ज्ञानानन्द परिणति को ग्रहण करता हूँ । नित्यानन्द स्वरूप सहजज्ञान में रहता हुआ निज परमब्रह्म परमात्मा में लीन होता हूँ । इसी का नाम सम्यक् योगभक्ति है । निश्चय आत्मभक्ति ही मोक्ष का कारण है । पर की भक्ति तो शुभराग की कारण हैह्र आस्रव की कारण है; भले ही वह वीतरागी भगवान की ही क्यों न हो। निर्विकल्प ज्ञानानन्द में एकतारूप भक्ति द्वारा संसार निवृत्तिरूप मोक्ष होता है। इसलिए हे भव्य ! सर्वप्रथम ऐसी श्रद्धा तो कर कि सर्व जीवों के लिए तीनों काल यह एक ही सत्य मार्ग उपादेय है। धर्मस्वरूप भक्ति निश्चयभक्ति है और पुण्यरूप भक्ति व्यवहार भक्ति है। " इस छन्द में टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव परमब्रह्म में लीन होने की भावना व्यक्त कर रहे हैं। वे अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कह १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११५३ २. वही, पृष्ठ ११५३-११५४ ३. वही, पृष्ठ ११५४ 39 गाथा १४० : परमभक्ति अधिकार ७७ रहे हैं कि मुझे यह सर्वोत्कृष्ट परम धर्म पूज्य गुरुदेव के सत्समागम से प्राप्त हुआ, उनके सान्निध्य में रहने से प्राप्त हुआ है। जिनागम का मर्म उनसे समझ कर जो ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ है और जिसे मैंने अपने अनुभव प्रमाणित किया है; उस ज्ञान के प्रताप से मेरा दर्शनमोह तो नष्ट हो ही गया है, चारित्रमोह की महिमा भी जाती रही; अतः अब मैं राग-द्वेष पूर्णतः अभाव के लिए शुद्धध्यान द्वारा ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मतत्त्व में स्थिर होता हूँ, परमब्रह्म में लीन होता हूँ। तात्पर्य यह है कि तुम भी यदि मोह का नाश करना चाहते हो, आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले अतीन्द्रियानन्द को प्राप्त करना चाहते हो तो परमब्रह्म में लीन होने का प्रयास करो। सच्चा सुख प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है ।। २३४ ।। इसके बाद आनेवाले पाँचवें व छठवें छन्द इसप्रकार हैं ह्र (अनुष्टुभ् ) निर्वृतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलुपचेतसाम् । सुन्दरानन्दनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम् ।।२३५ ।। अत्यपूर्वनिजात्मोत्थभावनाजातशर्मणे । यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे ।। २३६।। ( दोहा ) इन्द्रिय लोलुप जो नहीं तत्त्वलोलुपी चित्त । उनको परमानन्दमय प्रगटे उत्तम तत्त्व || २३५|| अति अपूर्व आतमजनित सुख का करें प्रयत्न । वे यति जीवन्मुक्त हैं अन्य न पावे सत्य ॥ २३६॥ इन्द्रिय लोलुपता से निवृत्त तत्त्व लोलुपी जीवों को सुन्दर आनन्द झरता हुआ उत्तम तत्त्व प्रगट होता है। अति अपूर्व निज आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले सुख के लिए जो यति यत्न करते हैं; वे वस्तुतः जीवन्मुक्त होते हैं, अन्य नहीं । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन छन्दों के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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