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________________ नियमसार अनुशीलन ६६ है। तात्पर्य यह है कि १३७वीं गाथा में आत्मा के आश्रय से रागादि का परिहार करनेवाले को योगभक्तिवाला कहा है और १३८वीं गाथा में सभी प्रकार के विकल्पों के अभाववाले को योगभक्तिवाला कहा है ।। १३८ ॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (अनुष्टुभ् ) भेदाभावे सतीयं स्याद्योगभक्तिरनुत्तमा । तयात्मलब्धिरूपा सा मुक्तिर्भवति योगिनाम् ।। २२९ ।। (दोहा) आत्मलब्धि रूपा मुकति योगभक्ति से होय । योगभक्ति सर्वोत्तमा भेदाभावे होय ।। २२९|| यह अनुत्तम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगभक्ति भेद के अभाव होने पर ही होती है। इस योगभक्ति द्वारा मुनिराजों को आत्मलब्धिरूप मुक्ति की प्राप्ति होती है। भेद का अर्थ विकल्प भी होता है। यही कारण है कि गाथा में जहाँ सर्वविकल्पों के अभाव की बात कही है; वही इस कलश में भेद के अभाव की बात की है। तात्पर्य यह है कि सभी प्रकार के भेद-प्रभेद संबंधी विकल्पों के अभाव में होनेवाली निर्विकल्प भक्ति ही निश्चययोग भक्ति है। यह निश्चय योगभक्ति मुक्ति का कारण है; क्योंकि यह निश्चय रत्नत्रयस्वरूप है, शुद्धोपयोग और शुद्धपरिणतिरूप है ।। २२९ ।। आगम का विरोधी अध्यात्मी नहीं हो सकता, अध्यात्म का विरोधी आगमी नहीं हो सकता। जो आगम का मर्म नहीं जानता, वह अध्यात्म का ● भी नहीं जान सकता और जो अध्यात्म का मर्म नहीं जानता, वह आगम का मर्म भी नहीं जान सकता। सम्यग्ज्ञानी आगमी भी है और अध्यात्मी भी तथा मिथ्याज्ञानी आगमी भी नहीं होता और अध्यात्मी भी नहीं होता। ह्न परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ- १७७ 34 नियमसार गाथा १३९ अब इस गाथा में परमयोग का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है हृ विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु । जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ।। १३९ ।। ( हरिगीत ) जिनवर कथित तत्त्वार्थ में निज आतमा को जोड़ना । ही योग है यह जान लो विपरीत आग्रह छोड़कर ॥१३९॥ विपरीताभिनिवेश को छोड़कर जो पुरुष जैनकथित तत्त्वों में अपने आत्मा को लगाता है; उसका वह निजभाव योग है। उक्त गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ समस्त गुणों को धारण करनेवाले गणधरदेव आदि मुनिवरों द्वारा कथित तत्त्वों में विपरीत मान्यता रहित आत्मा का परिणाम ही निश्चय परमयोग कहा गया है। अन्यमतमान्य तीर्थंकरों द्वारा कहे गये विपरीत पदार्थ में दुराग्रह ही विपरीत अभिनिवेश है। उसे छोड़कर जैनों द्वारा कहे गये तत्त्व ही निश्चय - व्यवहार से जानने योग्य हैं। तीर्थंकर अरहंतों के चरणकमल के सेवक जैन हैं। उनमें मुख्य गणधर देव हैं। उन गणधरदेवादि के द्वारा कहे गये सभी जीवादि तत्त्वों में जो जिन योगीश्वर अपने आत्मा को लगाता है; उसका वह निजभाव ही परमयोग है।" इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र " इस जीव की जिसमें रुचि होती है, यह जीव उसी का आदर करता है, अन्य का नहीं। इसीप्रकार जिसने मिथ्यात्वपोषक कुदेवादि
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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