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________________ नियमसार अनुशीलन आत्मप्रयत्न सापेक्ष मन की विशिष्ट गति-परिणति का ब्रह्म (अपने आत्मा) में लगाना ही योग है। तात्पर्य यह है कि पर के सहयोग के बिना मात्र स्वयं के प्रयत्न से मन का निज भगवान आत्मा में जुड़ना ही योग है ।। ६५ ।। इसप्रकार अन्य ग्रन्थ के उद्धरण से अपनी बात पुष्ट करके टीकाकार मुनिराज ' तथाहि ह्र अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द स्वयं प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ( अनुष्टुभ् ) आत्मानमात्मनात्मायं युनक्त्येव निरन्तरम् । ६४ स योगभक्तियुक्तः स्यान्निश्चयेन मुनीश्वरः ।। २२८ ।। ( दोहा ) निज आतम में आतमा को जोड़े जो योगि । योग भक्ति वाला वही मुनिवर निश्चय योगि || २२८|| जो मुनिराज अपने आत्मा को आत्मा में निरंतर जोड़ते हैं, युक्त करते हैं; वे मुनिराज निश्चय से योगभक्ति युक्त हैं। उक्त छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “त्रिकाली ज्ञानानंदस्वरूप अनंतगुणों का पुंज वह आत्मा है, उसके आश्रयपूर्वक पर से भिन्न अन्तर्मुख परिणति वह धर्म है और उसका कारण / साधन / आधार स्वयं आत्मा ही है। उसकी सम्यक् प्रतीतिरूप योगभक्ति है। गृहस्थों के भी इसप्रकार की योगभक्ति होती है, मुनिराजों के तो विशेष आनंद सहित लीनता होने से विशेष योगभक्ति होती है।" इसप्रकार हम देखते हैं कि यह मुक्तिप्रदाता योगभक्ति अपनीअपनी भूमिकानुसार गृहस्थों और मुनिराजों ह्र दोनों को ही होती है । । २२८ ॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११४१ 33 नियमसार गाथा १३८ विगत गाथा के समान इस गाथा में भी निश्चय योगभक्ति का स्वरूप कहते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू । सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो । । १३८।। (हरिगीत ) जो साधु आत लगावे सब विकल्पों के नाश में । वह योगभक्ति युक्त हैं यह अन्य को होवे नहीं ।। १३८ ॥ जो साधु अर्थात् आसन्नभव्यजीव सभी विकल्पों के अभाव में अपने आत्मा को अपने आत्मा में ही लगाता है अथवा अपने आत्मा में आत्मा को जोड़कर सभी विकल्पों का अभाव करता है; वह आसन्नभव्य जीव योगभक्तिवाला है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यहाँ भी विगत गाथा के समान निश्चय योगभक्ति का स्वरूप कहा है। अति- अपूर्व शुद्ध रत्नत्रयात्मक निज चिद्विलासलक्षण निर्विकल्प परमसमाधि द्वारा, सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेषादि अनेक विकल्पों का अभाव होने पर, परम समरसीभाव के साथ, सम्पूर्णतः अंतर्मुख निज कारण समयसारस्वरूप को जो अति-आसन्नभव्यजीव सदा जोड़ता ही है; उसे ही वस्तुतः निश्चय योगभक्ति है; अन्यों को नहीं ।" १३७ व १३८वीं गाथा में साहू पद का प्रयोग है; उसका अर्थ टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव आसन्नभव्यजीव करते हैं। दूसरी बात यह है कि ये दोनों गाथाएँ लगभग एक समान ही हैं। अन्तर मात्र इतना ही है कि १३७वीं गाथा में समागत रागादी परिहारे पद के स्थान पर १३८वीं गाथा में सव्ववियप्पाभावे पद दे दिया गया
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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