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________________ नियमसार अनुशीलन ही पर्याय-पर्याय में वीतरागता के अंश की वृद्धि होती जाती है; इसी का नाम प्रतिमा है। त्रिकाली चिदानन्द द्रव्य के आश्रय से प्रगट होनेवाली निर्मल रत्नत्रय पर्याय को भगवान ने यहाँ भजन कहा है। देखो, मुनि हो या श्रावक ह्न दोनों के स्वभाव के आश्रय से जितनी रत्नत्रय की आराधना वर्तती है, उतनी ही वीतरागी भक्ति है और वही मोक्ष का कारण है। श्रावक के आंशिक वीतरागी देशचारित्र प्रगट हुआ है; अतः उसे आंशिक भक्ति होती है और मनिराज के सकलचारित्र प्रगट हआ है; अतः उनके पूर्ण भक्ति होती है। ___मुनिराज के पंचमहाव्रत आदि का जो शुभराग होता है, वह तो आस्रव है और मुनिपद तो संवर-निर्जरारूप दशा है। यह दशा चैतन्यस्वभाव के आश्रय से प्रगट होती है तथा यही मुक्ति का कारण है, यही निर्वाणभक्ति है। इसी भक्ति से ही मुक्ति होती है। ___ शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करनेवाले उत्कृष्ट श्रावक एवं परमतपोधन के जिनेन्द्र भगवान द्वारा कही गई निर्वाणभक्ति अर्थात् अपुर्नभवरूपी स्त्री की सेवा वर्तती है। अपुर्नभव अर्थात् मोक्ष की आराधना वर्तती है। ऐसे अनंत-अनंत जिनेश्वर भगवंतों के शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करनेवाले श्रावक व श्रमणों के निर्वाण भक्ति ही है। स्वभाव के श्रद्धानज्ञान-स्थिरतारूप शुद्धरत्नत्रय की आराधना ही मुक्ति की भक्ति है। तात्पर्य यह है कि उसी के आश्रय से मुक्ति होती है। ह्र ऐसा जिनदेव ने कहा है।" गाथा १३४ : परमभक्ति अधिकार इस गाथा और उसकी टीका में शुद्ध रत्नत्रयरूप निर्वृत्ति भक्ति अर्थात् निर्वाण भक्ति का स्वरूप समझाया गया है। टीका के आरंभिक वाक्य में टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि यह रत्नत्रय के स्वरूप का व्याख्यान है; पर अगली पंक्तियों में ही यह स्पष्ट कर देते हैं कि शुद्ध रत्नत्रयरूप परिणामों का भजन-आराधना ही भक्ति है। शुद्ध रत्नत्रय के धारी होने से यह निर्वृत्ति भक्ति मुख्यरूप से मुनिराजों के ही होती है; तथापि आंशिक निर्वृत्ति भक्ति आंशिक संयम को धारण करनेवाले प्रतिमाधारी श्रावकों के भी होती है। यह निर्वृत्ति भक्ति नामक निश्चयभक्ति शुद्ध निर्मल परिणतिरूप है; यही कारण है कि यह सदा विद्यमान रहती है। पर यह निश्चयभक्ति न तो पूर्णतः शुद्धोपयोगरूप ही है और न वचनव्यवहाररूप ही है तथा यह निश्चयभक्ति नमस्कारादि कायिक क्रिया और विकल्पात्मक मानसिक भावरूप भी नहीं है; क्योंकि उक्त शुद्धोपयोग तथा मानसिक विकल्पात्मक स्तुति बोलनेरूप तथा नृत्यादि चेष्टारूप मन-वचनकाय संबंधी व्यवहार भक्ति कभी-कभी ही होती है ।।१३४।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसी भाव का पोषक एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार है ह्र (मंदाक्रान्ता ) सम्यक्त्वेऽस्मिन् भवभयहरे शुद्धबोधे चरित्रे भक्तिं कुर्यादनिशमतुलां यो भवच्छेददक्षाम् । कामक्रोधाद्यखिलदुरघवातनिर्मुक्तचेता: भक्तो भक्तो भवति सततं श्रावक: संयमी वा ।।२२०।। (हरिगीत ) संसारभयहर ज्ञानदर्शनचरण की जो संयमी। श्रावक करेंभव अन्तकारक अतुल भक्ती निरन्तर|| वेकाम क्रोधादिक अखिल अघ मुक्तमानस भक्तगण। ही लोक में जिनभक्त सहृदय और सच्चे भक्त हैं।।२२०|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०९९ २. वही, पृष्ठ १०९९ ३. वही, पृष्ठ ११०१ ४. वही, पृष्ठ ११०२-११०३ ५. वही, पृष्ठ ११०३
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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