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________________ (१०) परमभक्ति अधिकार ( गाथा १३४ से गाथा १४० तक) नियमसार गाथा १३४ विगत नौ अधिकारों में क्रमश: जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहारचारित्र, परमार्थप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान, परम आलोचना, शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त और परमसमाधि की चर्चा हुई। अब इस दसवें अधिकार में परमभक्ति की चर्चा आरंभ करते हैं । इस परमभक्ति अधिकार को प्रारंभ करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं ह्र “अब भक्ति अधिकार कहा जाता है।" अब नियमसार की गाथा १३४ एवं परमभक्ति अधिकार की पहली गाथा में रत्नत्रय का स्वरूप समझाते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो । तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ।। १३४ ।। ( हरिगीत ) भक्ति करें जो श्रमण श्रावक ज्ञान-दर्शन-चरण की । निरवृत्ति भक्ति उन्हें हो इस भाँति सब जिनवर कहें ॥१३४॥ जो श्रावक या श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भक्ति करता है, उसे निवृत्ति भक्ति है ह्र ऐसा जिनेन्द्रदेवों ने कहा है । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है। चार गतिरूप संसार में परिभ्रमणका कारणभूत तीव्र मिथ्यात्व कर्म की प्रकृति के प्रतिपक्षी निज 24 गाथा १३४ : परमभक्ति अधिकार परमात्म तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरणस्वरूप शुद्धरत्नत्रयरूप परिणामों का भजन ही भक्ति है; आराधना है ह्र ऐसा इसका अर्थ है । श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं में आरंभ की छह प्रतिमायें जघन्य श्रावक की हैं, मध्य की तीन प्रतिमा में मध्यम श्रावक की हैं और अन्त की दो प्रतिमायें उत्तम श्रावक की हैं। ह्र ये सभी श्रावक शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं। સવ तथा संसारभय से भयभीत, परम नैष्कर्मवृत्तिवाले परम तपोधन भी शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं। उन परम श्रावकों तथा परम मुनिराजों को, जिनदेवों के द्वारा कही गई और दुबारा संसार में न भटकने देनेवाली यह निर्वृत्ति भक्ति (निर्वाण भक्ति) रूपी स्त्री की सेवा है।" इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति का अर्थ रत्नत्रय की आराधना है, उसे अपने जीवन में उतारना है। श्रावक को भी रत्नत्रय की आराधना होती है। उसे भी निश्चय श्रद्धान, ज्ञान व कुछ अंशों में आचरण होता है। स्वभाव के ध्यान द्वारा निर्मल पर्याय का उत्पन्न होना ही आराधना-भक्ति है । श्रावकों के सम्पूर्ण ग्यारहों पद अन्तर में आत्मा के भानपूर्वक ही होते हैं। उनके आत्मा में अंशतः स्थिरतारूप रत्नत्रय की भक्ति होती है। ग्यारह प्रतिमावाले सभी श्रावक शुद्धरत्नत्रय की भक्ति करते हैं। चिदानन्द ज्ञातास्वभाव के श्रद्धान- ज्ञानपूर्वक उसका अवलम्बन लेते १. श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के नाम क्रमशः इसप्रकार हैं ह्र (१) दर्शन प्रतिमा, (२) व्रत प्रतिमा, (३) सामायिक प्रतिमा, (४) प्रोषधोपवास प्रतिमा, (५) सचित्त त्याग प्रतिमा, (६) रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा या दिवामैथुनत्याग प्रतिमा, (७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा, (८) आरंभत्याग प्रतिमा, (९) परिग्रहत्याग प्रतिमा, (१०) अनुमतित्याग प्रतिमा और (११) उदिष्टाहारत्याग प्रतिमा । २. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०९१ ३. वही, पृष्ठ १०९१
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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