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________________ ३०८ कलश पद्यानुवाद नियमसार अनुशीलन (दोहा) काम विनाशक अवंचक पंचाचारी योग्य । मुक्तिमार्ग के हेतु हैं गुरु के वचन मनोज्ञ।।२४८।। जिनप्रतिपादित मुक्तिमग इसप्रकार से जान । मुक्ति संपदा जो लहे उसको सतत् प्रणाम||२४९|| (रोला) कनक कामिनी की वांछा का नाश किया हो। सर्वश्रेष्ठ है सभी योगियों में जो योगी। काम भील के काम तीर से घायल हम सब | हे योगी तुम भववन में हो शरण हमारी||२५०|| अनशनादितपका फल केवल तन का शोषण। अन्य न कोई कार्य सिद्ध होता है उससे॥ हे स्ववशयोगि! तेरे चरणों के नित चिन्तन से । शान्ति पा रहा सफल हो रहा मेरा जीवन ||२५१|| समता रस से पूर्ण भरा होने से पावन | निजरस के विस्तार पूर से सब अघ धोये|| स्ववश हृदय में संस्थित जो पुराण पावन है। शुद्धसिद्ध वह तेजराशि जयवंत जीव है ।।२५२।। (दोहा) वीतराग सर्वज्ञ अर आत्मवशी गुरुदेव। इनमें कुछ अन्तर नहीं हम जड़ माने भेद ||२५३|| स्ववश महामुनि अनन्यधी और न कोई अन्य। सरव करम से बाह्य जो एकमात्र वे धन्य ||२५४|| (सोरठा) प्रगटें दोष अनंत, यदि मन भटके आत्म से। यदि चाहो भव अंत, मगन रहो निज में सदा ।।६८॥' (रोला) अतिशय कारण मुक्ति सुन्दरी के सम सुख का। निज आतम में नियत चरण भवदुख का नाशक|| जो मुनिवर यह जान अनघ निज समयसार को। जाने वे मुनिनाथ पाप अटवी को पावक ||२५५।। (दोहा) आवश्यक प्रतिदिन करो अघ नाशक शिव मूल | वचन अगोचर सुख मिले जीवन में भरपूर ।।२५६|| निज आतम का चिन्तवन स्ववश साधु के होय। इस आवश्यक करम से उनको शिवसुख होय।।२५७|| (रोला) परमातम से भिन्न सभी जिय बहिरातम अर| अन्तर आतमरूप कहे हैं दो प्रकार के|| देह और आतम में धारे अहंबुद्धि जो। वे बहिरातम जीव कहे हैं जिन आगम में||६९||' अन्तरात्मा उत्तम मध्यम जघन कहे हैं। क्षीणमोह जिय उत्तम अन्तर आतम ही है। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव सब जघन कहे हैं। इन दोनों के बीच सभी मध्यम ही जानो ||७०।। योगी सदा परम आवश्यक कर्म युक्त हो। भव सुख दुख अटवी से सदा दूर रहता है। इसीलिए वह आत्मनिष्ठ अन्तर आतम है। स्वात्मतत्त्व से भ्रष्ट आतमा बहिरातम है।॥२५८|| (हरिगीत) उठ रहा जिसमें अनन्ते विकल्पों का जाल है। वह वृहद् नयपक्षकक्षा विकट है विकराल है। उल्लंघन कर उसे बुध अनुभूतिमय निजभाव को। हो प्राप्त अन्तर्बाह्य से समरसी एक स्वभाव को||७१|| 155 १. अमृताशीति, श्लोक ६४ १. मार्गप्रकाश ग्रंथ में उद्धृत श्लोक २. वही ३. समयसार, श्लोक ९०
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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