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________________ कलश पद्यानुवाद नियमसार अनुशीलन (वीरछन्द) गुरुदेव की सत्संगति से सुखकर निर्मल धर्म अजोड़। पाकर मैं निर्मोह हुआ हूँ राग-द्वेष परिणति को छोड़। शद्धध्यान द्वारा में निज को ज्ञानानन्द तत्त्व में जोड़। परमब्रह्म निज परमातम में लीन हो रहा हूँ बेजोड़॥२३४|| (दोहा) इन्द्रिय लोलुप जो नहीं तत्त्वलोलुपी चित्त। उनको परमानन्दमय प्रगटे उत्तम तत्त्व ।।२३५|| अति अपूर्व आतमजनित सुखका करेंप्रयत्न। वे यति जीवन्मुक्त हैं अन्य न पावे सत्य ||२३६|| (हरिगीत) अद्वन्द्व में है निष्ट एवं अनघ जो दिव्यातमा । मैं एक उसकी भावना संभावना करता सदा ।। मैं मुक्ति का चाहक तथा हँ निष्पही भवसुखों से। है क्या प्रयोजन अब मुझे इन परपदार्थ समूह से ।।२३७।। (मनहरण) विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुंओर के, चेतना के गुणगण कहाँ तक बरवानिये। अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम, विलसत सहजानन्द मय जानिये। नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन, शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये। नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आतमा, स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये।।६६|| (रोला) जो सत् चित् आनन्दमयी निज शुद्धातम में। रत होने से अरे स्ववशताजन्य कर्म हो। वह आवश्यकपरम करम ही मुक्तिमार्ग है। उससे ही मैं निर्विकल्प सुख को पाता हूँ||२३८|| १. प्रवचनसार, कलश ५ (रोला) निज आतम से भिन्न किसी के वश में न हो। स्वहित निरतयोगी नितहीस्वाधीन रहेजो। दुरिततिमिरनाशक अमूर्त ही वह योगी है। यही निरुक्तिक अर्थसार्थक कहा गया है।।२३९|| (ताटंक) त्रिभुवन घर में तिमिर पुंज सम मुनिजन का यह घन नव मोह। यह अनुपम घर मेरा है - यह याद करें निज तृण घर छोड़।।२४०।। ग्रन्थ रहित निथ पाप बन दहें पुजें इस भूतल में। सत्यधर्म के रक्षामणि मुनि विरहित मिथ्यामल कलि में।।२४१।। मतिमानों को अतिप्रिय एवं शत इन्द्रों से अर्चित तप। उसको भी पाकर जो मन्मथ वश है कलि से घायल वह ||२४२|| मुनि होकर भी अरे अन्यवश संसारी है, दुखमय है। और स्ववशजन सुखी मुक्तरे बस जिनवर से कुछ कम है।।२४३।। अतःएव श्री जिनवर पथ में स्ववश मुनि शोभा पाते। और अन्यवश मुनिजन तो बस चमचों सम शोभा पाते।।२४४।। अतः मुनिवरो देवलोक के क्लेशों से रति को छोड़ो। सुख-ज्ञान पूर नय-अनय दूर निज आतम में निज को जोड़ो।।२४५|| (दोहा) ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरों को दृष्टादृष्ट विरुद्ध । आत्मकार्य को छोड़ क्या परचिन्ता से सिद्ध ||६७॥ जबतक ईंधन युक्त है अग्नि बढ़े भरपूर। जबतक चिन्ता जीव को तबतक भव का पूर॥२४६|| (ताटक) शुद्धबोधमय मुक्ति सुन्दरी को प्रमोद से प्राप्त करें। भवकारण का नाश और सब कर्मावलि का हनन करें। वर विवेक से सदा शिवमयी परवशता से मुक्त हुए। वे उदारधी संत शिरोमणि स्ववश सदा जयवन्त रहें ।।२४७|| १.ग्रंथ का नाम एवं श्लोक संख्या अनुपलब्ध है। 154
SR No.009465
Book TitleNiyamsara Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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