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________________ निश्चयपरमावश्यक अधिकार ३८१ (अनुष्टुभ् ) सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः। नकामपि भिदांक्वापि तां विद्मो हा जडा वयम् ।।२५३।। एक एव सदा धन्यो जन्मन्यस्मिन्महामुनिः। स्ववश: सर्वकर्मभ्यो बहिस्तिष्ठत्यनन्यधीः ।।२५४।। आवासं जह इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं। तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स ।।१४७।। इसप्रकार इस छन्द में उन जीवों या सन्तों की महिमा बताई गई है; जो समतारस से भरे हुए होने से पवित्र हैं, जिन्होंने निजरस की लीनता द्वारा मिथ्यात्वादि पापों को धो डाला है, जो पुरातन है, जो अपने में समाये हुए हैं और सिद्धों के समान शुद्धस्वभावी हैं ।।२५२।। सातवें व आठवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (दोहा) वीतराग सर्वज्ञ अर आत्मवशी गुरुदेव । इनमें कुछ अन्तर नहीं हम जड़ माने भेद।।२५३|| स्ववश महामुनि अनन्यधी औरन कोई अन्य। सरख करम से बाह्य जो एकमात्र वे धन्य||२५४|| सर्वज्ञ-वीतरागी भगवान और इन स्ववश योगियों में कुछ भी अन्तर नहीं है; तथापि जड़ जैसे हम अरे रे इनमें भेद देखते हैं ह इस बात का हमें खेद है। इस जन्म (लोक) में एकमात्र स्ववश महामुनि ही धन्य है; जो निजात्मा में ही अनन्यबुद्धि रखते हैं; अन्य किसी में अनन्यबुद्धि नहीं रखते । इसीलिए वे सभी कर्मों से बाहर रहते हैं। इसप्रकार इन छन्दों में से प्रथम छन्द में यही कहा गया है कि यद्यपि निश्चय परम आवश्यकों को धारण करनेवाले मुनिराजों और वीतरागी सर्वज्ञ भगवान में कुछ भी अन्तर नहीं है; तथापि हम उनमें अंतर देखते हैं। हमारा यह प्रयास जड़बुद्धियों जैसा है; क्योंकि अपने में अपनापन रखने वाले, निश्चय परम आवश्यक धारण करनेवाले महामुनि ही धन्य हैं, महान हैं। दूसरे छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि एकमात्र स्ववश मुनि ही धन्य हैं; क्योंकि वे एकमात्र अपने आत्मा में अनन्यबुद्धि रखते हैं, अपनापन रखते हैं; अन्य किसी में नहीं।।२५३-२५४।। विगत गाथाओं में स्ववश सन्तों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है और अब इस गाथा में स्ववश सन्त होने के उपाय पर विचार करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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