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________________ ३८२ नियमसार आवश्यकं यदीच्छसि आत्मस्वभावेषु करोषि स्थिरभावम् । तेन तु सामायिकगुणं सम्पूर्णं भवति जीवस्य । । १४७ ।। शुद्धनिश्चयावश्यकप्राप्त्युपायस्वरूपाख्यानमेतत् । इह हि बाह्यषडावश्यकप्रपंचकल्लोलिनीकलकलध्वनिश्रवणपराङ्मुख हे शिष्य शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकस्वात्माश्रयावश्यकं संसारव्रततिमूललवित्रं यदीच्छसि, समस्तविकल्पजालविनिर्मुक्तनिरंजननिजपरमात्मभावेषु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुखप्रमुखेषु सततनिश्चल स्थिरभावं करोषि, तेन हेतुना निश्चयसामायिकगुणे जाते मुमुक्षोर्जीवस्य बाह्यषडावश्यकक्रियाभिः किं जातम्, अप्यनुपादेयं फलमित्यर्थः । अत: परमावश्यकेन निष्क्रियेण अपनुर्भवपुरन्ध्रिकासंभोगहासप्रवीणेन जीवस्य सामायिकचारित्रं सम्पूर्णं भवतीति । ( हरिगीत ) आवश्यकों की चाह हो थिर रहो आत्मस्वभाव में । इस जीव के हो पूर्ण सामायिक इसी परिणाम से || १४७|| सन्त ! यदि तुम अवश्य करने योग्य आवश्यक प्राप्त करना चाहते हो तो आत्मस्वभाव में स्थिरतारूप भाव धारण करो; क्योंकि जो आत्मस्वभाव में स्थिर भाव करता है, उससे उसे सामायिक गुण पूर्ण होता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यह शुद्धनिश्चय आवश्यक की प्राप्ति के उपाय के स्वरूप का कथन है । बाह्य षट् आवश्यक के प्रपंच (विस्तार) रूपी नदी की कल-कल ध्वनि के कोलाहल के श्रवण से पराङ्गमुख अर्थात् व्यवहार - आवश्यकों से विरक्त हे शिष्य ! यदि तू संसाररूपी लता (बेल) की जड़ को छेदने के लिए कुठार के समान शुद्ध निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप स्वात्माश्रित निश्चय आवश्यक चाहता है तो तू सकल विकल्पजाल से मुक्त निरंजन निज परमात्मा के सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहजसुख आदि भावों में स्थिरभाव कर; क्योंकि इससे ही निश्चय सामायिक गुण उत्पन्न होता है। उसके होने पर मुमुक्षु जीव को बाह्य आवश्यक क्रियाओं से क्या लाभ है ? उनसे तो अनुपादेय (हेय) फल ही उत्पन्न होता है ह्न ऐसा अर्थ है; क्योंकि इस जीव को अपुनर्भवरूपी, मुक्तिरूपी स्त्री के संभोग और हास्य प्राप्त करने में समर्थ निश्चय परमावश्यक से ही सामायिक चारित्र सम्पूर्ण होता है, पूर्णता से प्राप्त होता है । " इस गाथा और उसकी टीका में ऐसे पात्र मुनिराजों को शिष्य के रूप में लिया गया है कि जो यथायोग्य व्यवहार आवश्यक होने पर भी उनसे पराङ्गमुख हैं और निश्चय परम आवश्यक के अभिलाषी हैं। उनसे कहा जा रहा है कि आप विकल्पजाल से 'मुक्त' होकर एकमात्र निज
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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