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________________ ३८० ( द्रुतविलंबित) अनशनादितपश्चरणैः फलं तनुविशोषणमेव न चापरम् । तव पदांबुरुहद्वयचिंतया स्ववश जन्म सदा सफलं मम ।। २५१ ।। ( मालिनी ) जयति सहजतेजोराशिनिर्मग्नलोकः स्वरसविसरपूरक्षालितांहः समंतात् । पुराण: स्ववशमनसि नित्यं संस्थितः शुद्धसिद्ध: ।। २५२ ।। सहजसमरसेनापूर्णपुण्यः नियमसार पाँचवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( रोला ) अनशनादि तप का फल केवल तन का शोषण । अन्य न कोई कार्य सिद्ध होता है उससे ॥ हे स्ववश योगि! तेरे चरणों के नित चिंतन से । शान्ति पा रहा सफल हो रहा मेरा जीवन || २५१ ।। अनशनादि तपश्चरणों का फल मात्र शरीर का शोषण है, दूसरा कुछ भी नहीं । हे स्ववश योगी ! तेरे युगल चरण कमल के चिन्तन से मेरा जन्म सदा सफल है। इस छन्द में विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें अनशनादि तपों का फल मात्र शरीर का शोषण बताया गया है। साथ में यह भी कहा गया है कि स्ववश योगी ही महान है; उनके चरणों की उपासना में ही मानव जीवन सफल है ।। २५१ ।। छठवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( रोला ) समता रस से पूर्ण भरा होने से पावन । निजरस के विस्तार पूर से सब अघ धोये ॥ स्ववश हृदय में संस्थित जो पुराण पावन है। शुद्धसिद्ध वह तेजराशि जयवंत जीव है || २५२ || जिसने निजरस के विस्ताररूपी बाढ (पूर) के द्वारा पापों को सर्व ओर से धो डाला है; जो सहज समतारस भरा होने से परम पवित्र है; जो पुरातन है; जो स्ववश मन में संस्थित है अर्थात् हृदय के भावों को स्ववश करके विराजमान है; तथा जो सिद्धों के समान शुद्ध है ह्र ऐसा सहज तेजराशि में निमग्न जीव सदा जयवंत है ।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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